________________
(७१)
र॥तुं शीख सुगुरुकी मान, अग्यानी नर रे ॥ अब परत्रिया कर जान, बेन ने मा॥ बेन॥अब० ॥३॥ अब जिनवर मुज मन नायो, सदा गुन गाऊं ॥ स दा० ॥ अब इतनी किरपा करो, नरक नही जाऊं। अब नव नवमांही देव, जिनेसर पाजं ॥ जिने ॥ में मन वच काया करी, चरण चित्त लाजं ॥ए दया धरम हितकार, सदा में चाउ ॥ सदा॥ए चारासा के मांहे, फेर नहिं श्राऊं ॥ युं अरज करे जिनदास किरत ए गा॥ किरत ॥ अब० ॥४॥ ॥२॥
॥शीखामणनी लावणी॥ कब देखु जिनवर देव, जगद् गुरु ग्यानी ॥ जगण ॥को थाप समो नही उर, जो अंतरध्यानी॥ए आंकणी ॥ अब विषम वन संसार, जगत्में न टक्यो ॥जग॥ मुळे अनमतमें ले जाय, नरकमें पट क्यो ॥ अब लडं दरिसण जिनवरका, 1 दिन कब ऊगें ॥ 5 ॥ मुऊ मनकी वंडित आश, अधिक सब पूगे ॥ अब जिनदरसन बिन नयन, करे मुफ पानी ॥ ऊरे ॥ कोश् ॥१॥ थारे कुगुरुको उपदेश, हि यामें गयो ॥हिया० ॥ पण सरस नेद समकितको जीव नही पायो ॥ अब जैन धर्म निज माल,
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org