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(२६) हृदयशंजीरी, सखी हुँ बोहोत वरांसी रे ॥ अब पा ऊ तो पां न मेरुं, राखुं रंग विलासी पी० ॥ ॥३॥ पीउके गुनकी मोहनमाला, कंठ करूं जप
जीरे ॥ चकित जये मेरे लोचन चिहुं उर, सूरिज न पंथ निहाली रे॥पी०॥४ ॥ कदे मतिनारी जीवन प्यारे, में हुं तेरी बंदी रे ॥ गोद बीगडं वि नय विनोदें, घर श्रावो आनंदी रे ॥ पी० ॥५॥ - पद सातमुं॥ राग काफी ॥ तो विना उर न जा चुं, जिणंदराय ॥ तो॥में मेरो मन निश्चय कीनो, ए हमां कबु नहीं काचुं ॥ जिणंद ॥ तो ॥१॥ चरन कमल पर भ्रमर मन मेरो, अनुभव रस जर चा ॥ अंतरंग अमृत रस चाखो, एह वचन मन साचुं ॥ जिणंद० ॥ तो० ॥२॥ जस प्रनु ध्यायो महारस पायो, अवर रसें नहीं राचुं ॥अंतरंग फरस्यो दरिस न तेरो, तुज गुण रस रंग माचुं॥ जिणं॥तो ॥३॥ - पद बाग्मुं॥ राग नायकी कनमो॥या गति कौन हे सखी तोरी ॥ या गति कौ॥ए टेक॥श्त उत युंही फिरत है गहेली, कंत गयो चित्त चोरी ॥ या गति कोण ॥१॥ चितवत हे विरहानल बुझवत, सींच नय न जल जोरी ॥ जानत नहीं उहां हे वडवानल, ज
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