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(३३) तें होत वियोगी ॥ सदा सिक सम शुद्ध विलासी, वे तो निज गुण जोगी ॥ अंब० ॥५॥ जिऊं जानो तिळं जगजन जानो, मेंतो सेवक उनको ॥ पक्षपात तोपरशुं होवे, राग धरत हुँ गुनको ॥अब० ॥६॥ नाव एक हे सब झानीको, मूरख नेद न जावे ॥अपनो साहिब जो पहिचाने, सो जस लीलापावे॥॥॥ अब में सच्चो साहिब पायो,ज्ञान ध्यान चित लायो॥या की सेव करतहुं याकुं, मुझमन प्रेम सुहायो॥श्रबणा
पद अढारमुं॥राग देव गंधार ॥अजब रूप जि नजीको ॥ तुम देखो माइ,अजब रूप जिनजीको॥ टेक ॥ उनके धागे ओर सबनको, रूप लगे मोहि फीको ॥ तुम देखो० ॥१॥ लोचन करुणा अमृत कचोले, मुख सोहे अति नीको ॥ तुम देखो॥२॥ कवि जसविजय कहे ए प्रज्जु साचो, नेमजी त्रिजुव न टीको ॥ तुम देखो ॥३॥ :पद उंगणीशमुं॥ ताल चोतालो॥ पवनको करे तोल, गगनको करे मोल, रीवको करे हिंडोल,ऐसो को नर रे॥टेक ॥१॥ परको काते सूत, बंजेकू पमावे पूत, घटमें जो बोल नूत, वाको कौन घर रे ॥ पव न॥२॥ बीजलीसे करे वाह, धुळू चलावे राह,
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