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(३२) . जगमें, सेवा कीजें दिल ला ॥ सुखम् ॥१॥ सब सुख दाइ एह निनायक, एही सायक सुसहा ॥ किंकरकू करे शंकर सरिसो, आपे अपनी उकुराई ॥ ॥सख ॥२॥ मंगल रंग वधे प्रजु ध्याने, पाप वेलि जाये करमाश् ॥ शीतलता प्रगटे घट अंतर, मिटे मोहकी गरमा ॥ सुख ॥ ३ ॥ कहा करुं सुर तरु चिंतामनिकों, जो में प्रनु सेवा पाश् ॥ श्रीजस विजय कहे दरिसन देख्यो, घर श्रांगन नवनिधि
श्राश् ॥ सुख ॥ ४ ॥ इति ॥ __पद सत्तरमुं॥ राग देशाख ॥ अब में सच्चो सा हिब पायो॥ टेक ॥गकुर और न होवे अपनो, जो दीजे घरमायो ॥ संपत्ति अपनी खिनुमे देवे, वेतो दीलमें ध्यायो ॥१० ॥१॥ औरनकी जन करत चा करी, दूर देश पग घासे ॥ अंतरजामी ध्याने दीसे, वेतो अपनी पासे ॥ अब० ॥२॥ उर कबहुं कोउ का रन कोप्यो, बहुत उपाय न तूसे ॥ चिदानंदमें म गन रहतु हे, वेतो कबहु न रूसे ॥ अब० ॥३॥ उरनकी चिंता चित्त न मिटे, सब दिन धंधे जावे ॥ थिरता गुन पूरन सुख खेले, वेतो अपने नावे ॥ अब० ॥४॥ पराधीन हे लोग औरको, जा
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