Book Title: Sramana 2014 07 10
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 13
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में सामान्य, विशेष तथा समवाय का कथंचिद् मूर्त्तत्व एवं अमूर्त्तत्व डॉ० धर्मचन्द जैन भारतीय दार्शनिक परम्परा में वैशेषिक दर्शन छह भाव पदार्थों में द्रव्य, गुण एवं कर्म के साथ सामान्य, विशेष एवं समवाय की भी गणना करता है। आगे चलकर वैशेषिक दर्शन में अभाव को भी पृथक् पदार्थ के रूप में स्थापित किया गया है। इन पदार्थों में सामान्य, विशेष एवं समवाय ऐसे पदार्थ हैं, जिनके पृथक् अस्तित्व का बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों ने प्रबल खण्डन किया है। जैनदर्शन में प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होता है, किंतु सामान्य एवं विशेष नामक स्वतंत्र पृथक् पदार्थों का कोई अस्तित्व अंगीकृत नहीं है। वैशेषिक दर्शन में सामान्य, विशेष एवं समवाय को अमूर्त स्वीकार किया गया है, जबकि आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में इन्हें कथंचिद् मूर्त एवं अमूर्त सिद्ध किया है। प्रश्न यह है कि सामान्य, विशेष एवं समवाय पदार्थ मूर्त होते हैं या अमूर्त? वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य के अंतर्गत ही मूर्त्तत्व एवं अमूर्त्तत्व की चर्चा की जाती है। जिन पदार्थों का परिमाण परिच्छिन्न अर्थात् सीमित होता है वे मूर्त कहलाते हैं तथा जिनका परिमाण अपरिच्छिन्न (असीमित) होता है वे अमूर्त कहलाते हैं। इस लक्षण के अनुसार पृथ्वी, अप, तेज, वायु एवं मन द्रव्य ही मूर्त के अंतर्गत आते हैं, शेष द्रव्य आकाश, काल, दिक् और आत्मा वैशेषिक दर्शन में अमूर्त हैं, क्योंकि इनका परिमाण परिच्छिन्न नहीं है, अपितु, परम् महत् है। परम् महत्परिमाण वाले द्रव्य अमूर्त होते हैं, किंतु सीमित परिमाण वाले द्रव्य मूर्त होते हैं। इस दृष्टि से अणु परिमाण वाले, द्वयुणक एवं मन को भी मूर्त स्वीकार किया जाता है। गुण, कर्म, सामान्य, विशेष एवं समवाय में अमूर्त की चर्चा नहीं की गई है, क्योंकि वैशेषिक दर्शन में मूर्त्तत्व एक गुण है जो द्रव्य में ही रह सकता है। परिमाण नामक गुण का ही एक स्वरूप मूर्त्तत्व है।

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