________________
22 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4 / जुलाई - दिसम्बर 2014
नाना प्रकार से प्रशंसा करना, दूसरों के ऊपर विश्वास न करना, अपने समान दूसरों को भी मानना, स्तुति करने वाले पर संतुष्ट हो जाना, अपनी हानि - वृद्धि को कुछ भी न समझना, रण में मरने की प्रार्थना करना, स्तुति करने वाले को खूब धन देना, अपने कार्य-अकार्य की कुछ भी गणना न करना, ये सब कापोत लेश्या वाले के चिह्न हैं ।
मात्सर्य, पैशून्य, परपरिभव, आत्मप्रशंसा परपरिवाद, जीवन नैराश्य, प्रशंसक को धनदेना, युद्ध मरणोद्यम आदि कापोतलेश्या के कारण हैं । (iv) पीतलेश्या :
जाणइ कज्जाकज्जं सेयमसयं च सव्वसमपासी । दयादाणरदो य मिदू लक्खणमेयं तु तेउस्स ।।
अर्थात् अपने कार्य-अकार्य, सेव्य - असेव्य को समझने वाला हो, सबके विषय में समदर्शी हो, दया- दान में तत्पर हो, मन-वचन - काय के विषय में कोमल परिणामी होना, पीतलेश्या वाले के चिह्न हैं ।
(v) पद्मलेश्या :- (Padma, pink leshya)
चागी भद्दो चोक्खो, उज्जवकम्मो य खमदि बहुगं पि । साहुगुरुपूजणरदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स ।।
जो दान देने वाला हो, भद्रपरिणामी हो जिसका उत्तम कार्य करने का स्वभाव हो, कष्टरूप तथा अनिष्टरूप उपद्रवों को सहन करने वाला हो, मुनिजन गुरुजन आदि की पूजा में प्रीतियुक्त हो, ये सब पद्मलेश्या वाले के लक्षण हैं |
(vi) भाक्ललेश्या :
ण य कुणइ पक्खवायं, ण वि य णिदाणं समो ये सव्वेसिं । णत्थि य रायद्दोसा, णेहो वि य सुक्कले स्सस्स ।।
अर्थात् पक्षपात न करना, निदान को न बांधना, सब जीवों में समदर्शी होना, इष्ट में राग और अनिष्ट में द्वेष न करना, स्त्री- पुत्र - मित्र आदि में स्नेहरहित होना, ये सब शुक्ललेश्या वाले के लक्षण हैं ।