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32 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4/जुलाई-दिसम्बर 2014 अपभ्रंश के साथ रखा गया है। रुद्रट रचित ग्रन्थ काव्यालंकार में कुछ प्राकृत की गाथाएँ उदाहरण के रूप में मिलती हैं जो उनकी स्व-रचित प्रतीत होती हैं। परवर्ती आलंकारिकों पर प्राकृतकाव्य-साहित्य का प्रचुर प्रभाव दिखता है। आनन्दवर्धन के ध्वनिसिद्धान्त पर सेतुबन्ध, गउडवहो, हरविजय, मधुमथनविजय, गाथासप्तशती एवं लीलावई जैसे काव्यग्रन्थों का प्रभाव सहज रूप से देखा जा सकता है। ध्वन्यालोक में प्रतिपादित ध्वनिसिद्धान्त एवं प्राकृतकाव्यसाहित्य के अन्तःसम्बन्ध को मैंने अपने शोधपत्र- 'ध्वन्यालोक में प्ररूपित प्राकृतविधान का वैशिष्ट्य' ('वाकोवाक्यम् अन्ताराष्ट्रिय– संस्कृतपत्रिका में प्रकाशित) में विस्तार से वर्णन किया है। काव्यप्रकाश एवं प्राकृत काव्यसाहित्य : आनन्दवर्धन के अनुयायी एवं ध्वनिसिद्धान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य मम्मटभट्ट विरचित प्रौढकाव्यशास्त्रीयग्रन्थ काव्यप्रकाश के विभिन्न सन्दर्भो, प्रसंगों एवं काव्यशास्त्रीय तत्त्वों के निरूपण में प्राकृत काव्यसाहित्य से कुल चौसठ गाथाएँ उद्धृत हैं। किसी एक ग्रन्थ में चौसठ गाथाओं का उदाहरण के रूप में उद्धरण, उस ग्रन्थ के साथ प्राकृत काव्यसाहित्य के सम्बन्ध को स्वतः प्रमाणित करता है। इन गाथाओं में से तैंतालिस गाथाएँ गाहासत्तसई (गाथासप्तशती) मुक्तककाव्य से, पाँच विषमबाणलीला प्राकृतकाव्य से, चार राजशेखर विरचित सट्टक कर्पूरमंजरी से, एक गउडवहो काव्य से, दो पंचबाणलीला काव्य से एवं एक देवीशतक काव्य से उदाहृत हैं। काव्यप्रकाश के द्वितीयोल्लास में वाच्य-लक्ष्य एवं व्यंग्यार्थ की व्यंजकता के प्रसंग में ‘गाहासत्तसई' की तीन गाथाएँ उदाहृत हैं, यथा
वाच्य
माए घरोबअरणं अज्ज हु णस्थिति साहिअं तुमए। ता भण किं करणिज्जं एमेअ ण वासरो. ठाइ।।