Book Title: Sramana 2014 07 10
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 74
________________ 'श्रमण परम्परा, अहिंसा एवं शान्ति' : 67 सम्यक् होनी चाहिए। इनके पालन से एक नैतिक व्यवस्था जन्म लेती है जो एक नैतिक एवं सहिष्णु समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। उन्होंने बताया कि मुक्ति की ओर अग्रसर श्रावक श्राविका श्रमण प्रतिमा के स्तर तक पहुँच सकते हैं। 22. चार आर्यसत्य एवं आर्य अष्टांगिक मार्ग : यह व्याख्यान प्रो0 उर्मिला चतुर्वेदी, महिला महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का था। प्रो० चतुर्वेदी ने दुःख से निवृत्ति को बौद्ध दर्शन का लक्ष्य बताते हुए कहा कि गौतम बुद्ध के विचार से दुःख संसार का सामान्य लक्षण है। दुःख का कारण, इसका निराकरण और इसके निराकरण का मार्ग प्रशस्त करना यही बौद्ध धर्म का प्रतिपाद्य है। इसे ही चार आर्यसत्य की संज्ञा दी गयी है। प्रो0 चतुर्वेदी ने इन चार आर्यसत्यों के विवेचन के क्रम में बुद्ध द्वारा उपदिष्ट दुःखनिरोध मार्ग को ही अष्टांगिक मार्ग बताते हुए सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति एवं सम्यक् समाधि का विशद विवेचन कर समाधि के चार स्तरों का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि समाधि के प्रथम स्तर में साधक चार आर्यसत्यों का मनन कर मन में उत्पन्न अनेक प्रकार के संशयों का निराकरण करता है। दूसरी अवस्था आनन्द एवं शांति की अवस्था है और तीसरी अवस्था में आनन्द एवं शांति के प्रति उदासीनता का भाव उत्पन्न हो जाता है जबकि चतुर्थ अवस्था में किसी प्रकार का भी भाव चित्त में विद्यमान नहीं होता है। यह सुख-दुःख से परे चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था है। प्रो० चतुर्वेदी ने बताया कि यह अवस्था ही निर्वाण की अवस्था है जो बौद्धधर्मदर्शन का प्रधान लक्ष्य है। 23. जैन धर्म-दर्शन में अहिंसा : यह व्याख्यान कार्यशाला के संयोजक डॉ० श्रीनेत्र पाण्डेय द्वारा दिया गया। 'अहिंसा परमो धर्मः' के सर्वमान्य उद्घोष से अपने व्याख्यान का प्रारम्भ करते हुए बाह्य एवं आन्तरिक व्यापार की दृष्टि से अहिंसा को

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