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'श्रमण परम्परा, अहिंसा एवं शान्ति' : 71 व्याख्यान में मौर्यकाल के बौद्ध स्तम्भों का विशद् विवेचन करते हुए बौद्ध मूर्तिकला की दृष्टि से गन्धार एवं मथुरा की मूर्तिकला की विशेषताओं का वर्णन कर बौद्ध कला, जैन कला एवं ब्राह्मण कला का तुलनात्मक विवचेन प्रस्तुत किया। व्याख्यान के क्रम में बौद्ध कला के क्षेत्र में अजन्ता एवं एलोरा की महत्ता को प्रदर्शित करते हुए बौद्ध धर्म के विकास में इनके योगदान के साथ इनके संरक्षण की आवश्यकता पर विशेष बल दिया। 28. अनेकान्तवाद : यह व्याख्यान प्रो0 अशोक कुमार जैन, पूर्व विभागाध्यक्ष, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का था। प्रो0 जैन ने कहा कि अनेकान्तवद जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है जो वस्तु को अनन्त धर्मात्मक मानती है। वस्तु को केवल नित्य या केवल अनित्य कहना अनुचित है। वस्तु में प्रतिक्षण पूर्व आकार का त्याग, उत्तर आकार का ग्रहण एवं स्थिति रूप ध्रौव्यता बनी रहती है। प्रो० जैन ने बताया कि वस्तु को द्रव्य-पर्यायात्मक माना गया है। द्रव्य नित्यता को सूचित करता है जबकि पर्याय उसके बदलते हुए धर्मों को। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार सोना द्रव्य से किसी समय कुण्डल का निर्माण तो किसी समय चन्द्राहार का निर्माण। उन्होंने बताया कि अनेकान्तिक दृष्टि विरोधों का समन्वय है। इस दृष्टि से हम समाज में व्याप्त विभिन्न धर्मों की परस्पर असहिष्णुता को समाप्त कर सकते हैं। 29. अपोहवाद : यह व्याख्यान डॉ0 जयन्त उपाध्याय, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का था। डॉ0 जयन्त ने बताया कि 'अपोह' शब्द बौद्ध दर्शन का पारिभाषिक शब्द है जो अन्य दर्शनों में जाति या सामान्य के रूप में स्वीकार किया गया है। बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद को मानता है जिसके अनुसार प्रत्येक ज्ञान का अस्तित्व