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70 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4/जुलाई-दिसम्बर 2014 विशद् विवेचन किया। प्रो0 तिवारी ने समण बेलगोल की बाहुबली की मूर्ति को ध्यान-साधना की गहनता का प्रतीक बताते हुए कहा कि मूर्तियाँ हमें यह सन्देश प्रदान करती हैं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के आधार पर हम यशवान् एवं पूज्य हो सकते हैं। 26. जैन दार्शनिक साहित्य : यह व्याख्यान कार्यशाला निदेशक डॉ0 अशोक कुमार सिंह द्वारा दिया गया। डॉ० सिंह ने सम्पूर्ण जैन दार्शनिक साहित्य को दो भागों में विभाजित करते हुए ज्ञानमीमांसा सम्बन्धी जैन साहित्य के अन्तर्गत प्रमाण, ज्ञान, नय, निक्षेप, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं सप्तभंगी नय तथा तत्त्वमीमांसा सम्बन्धी जैन साहित्य के अन्तर्गत जीव, अजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को प्रमुख प्रतिपाद्य विषय बताया। प्रमाण के रूप में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप द्विविध प्रमाण के भेद-प्रभेदों का विशद् विवचेन करते हुए ज्ञान के साधन के रूप में नय का सविस्तार विवेचन किया। व्याख्यान के क्रम में डॉ0 सिंह ने काल क्रम के अनुसार ईसापूर्व पाँचवीं शताब्दी से लेकर वर्तमान तक के दार्शनिक साहित्य के युग को पाँच प्रमुख भागों में विभाजित करते हुए साहित्य सर्वेक्षण की पद्धति पर विस्तृत प्रकाश डाला। उन्होंने जैन दार्शनिक साहित्य के रूप में आचारांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, राजप्रश्नीय सूत्र, जीवाजीवाभिगम सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, नन्दी सूत्र, समयसार, पंचास्तिकाय, तत्त्वार्थसूत्र, न्यायावतार, सन्मतितर्क, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, आत्मानुशासन, युक्त्यानुशासन, विशेषावश्यकभाष्य, सर्वार्थसिद्धि, परमात्मप्रकाश, लघीयस्त्र, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, अनेकान्तजयपताका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय इत्यादि के विषयवस्तु एवं रचनाकार तथा रचनाकाल के विषय में भी संकेत किया। 27. बौद्ध कला का परिचय : यह व्याख्यान डॉ0 ज्योति रोहिल्ला राणा, इतिहास-कला विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का था। डॉ0 ज्योति ने अपने