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संस्कृतकाव्यशास्त्र एवं प्राकृतकाव्यसाहित्य ... : 35
गाढालिंगणरहसुज्जु अम्मि दइए लहुं समोसरइ । माणं सिणीण माणो पीलणभीअ व्व हिअआहि । । " यहां उत्प्रेक्षा अलंकार से प्रत्यालिंकन आदि वस्तु व्यङ्ग्य के रूप में व्यक्त हो रही है। वही
जा ठेरं व हसन्ती कइवअणं बुरुहबद्धविणिवेसा । दावेइ भुअणमंडलमण्णं विअ जअइ सा वाणी । ।
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गाहासत्तसई से गृहीत इस गाथा को मम्मटाचार्य ने अर्थशक्त्युद्भव– कविप्रौढोक्तिसिद्ध अलंकार से अलंकारध्वनि के उदाहरण के रूप में उपस्थापित किया है। यहां स्थविरमिव हसन्ति (ठेरं व हसन्ती) इस उत्प्रेक्षा अलंकार से व्यतिरेकालंकार व्यङ्ग्य है। जड़ कमल पर बैठे हुए और नीरस जगत् को उत्पन्न करने वाले बूढ़े ब्रह्मा की अपेक्षा कविवाणी उत्कृष्ट है।
इसीप्रकार मम्मटाचार्य ने अर्थशक्त्युद्भवध्वनि के कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध भेद के उदाहरणाय प्राकृत-साहित्य से चार गाथाएँ गृहीत की हैं, जिसमें से एक कर्पूरमंजरी सट्टक से एवं तीन गाहा सत्तसई से उपस्थापित हैं, यथा
जे लंका गिरिमेहलासु खलिआ संभोगखिण्णोरईफारुप्फुल्लफणावलीकवलणे पत्ता दरिद्दतणं । ते एहिनं मलआणिला विरहणीणी साससंपक्किणोजादा झत्ति सिसुत्तणे वि वहला तारुण्णपुण्णा विअ । । 12 सहि विरइऊण माणस्स.. .. तेण ओसरिअं । । 13 ओल्लोल्लकर अरअणक्खएहिं .... इमेण अक्कमिआ । । 14 महिलासहस्सभरिए तुह..... ..तणुअं वि तणुएइ । । "
उपर्युक्त चारों गाथाओं में व्यङ्ग्यार्थ कविनिबद्धवक्ता की प्रौढोक्ति मात्र से सिद्ध है। प्राकृत गाथाओं की रमणीयता एवं ध्वन्यमानता इन गाथाओं से सर्वथा स्पष्ट है। वही गाथाद्योत्य लक्षणामूलध्वनि के अत्यन्त तिरस्कृत वाच्यध्वनि के उदाहरण के लिए 'गाहासत्तसई की गाथा, यथा