Book Title: Sramana 2014 07 10
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 52
________________ जैन श्रमणी-संघ और नारी उत्थान डॉ0 शीला सिंह वर्तमान समय मे हम महिलाओं की स्थिति पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि तमाम प्रयासों के बाद भी आज नारी अपनी स्वतत्रंता के लिए जूझ ही रही है। परन्तु आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो स्थिति काफी संतोषजनक दिखती है। वह निरन्तर सफलता की नयी सीढ़ियाँ चढ़ रही है। विश्व-पटल पर विभिन्न क्षेत्रों में वह सशक्त हस्ताक्षर बनकर उभरी है। चुनौतियों का वह सफलतापूर्वक सामना कर रही है। कानून ने उसे बहुत से अधिकार भी दे रखे हैं। लेकिन क्या सच में ऐसी स्थिति है! कछ प्रतिशत महिलाओं की बात छोड़ दें तो सामान्य महिला को समाज में कितनी स्वायत्तता है? महिलाएं आज भी दहेज की बलि चढ़ रही हैं । आज भी बलात्कार की शिकार महिलाओं की संख्या कम नहीं हो रही है। बात चाहे पारिवारिक उत्पीड़न की हो या परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के नाम पर आनर किलिंग की; शिकार महिलाएं ही हो रही हैं। ऐसी स्थिति में, दृष्टि स्वतः ही जैनधर्म की ओर चली जाती है, जहाँ श्रमणी-संघ के माध्यम से नारी-उत्थान और नारी-सशक्तीकरण का कार्य हजारों वर्षों से सफलतापूर्वक किया जा रहा है। उत्तर वैदिक काल में आडम्बर और पाखंड से ऊबी जनता को बौद्ध और जैन धर्म के उदय से मानो नयी ऊर्जा मिली। समानान्तर विकसित हुए इन दोनों धर्मों में काफी समानता थी। दोनों ने ही अहिंसा के शीतल जल से दहकती धरा को पुनर्जीवित करने का कार्य किया। जैनधर्म के उदय से एक और समाज फिर से जी उठा, जो घोर दुर्दशा के दौर से गुजर रहा था, वह था नारी-समाज। श्रमणी-संघ और श्राविका-संघ के रूप में उन महिलाओं को ऐसा सुदृढ़ आश्रय मिला, जिसने उनके जीवन को एक नयी दिशा दी। श्रमण-परम्परा के निर्वाहक इन दोनों धर्मों में बौद्ध की अपेक्षा जैनधर्म में महिलाओं की स्थिति अधिक अच्छी थी। जैनधर्म में श्रमणी-संघ की स्थापना श्रमण-संघ के साथ ही हुई थी। उत्तराध्ययन' के अनुसार पार्श्व की

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