________________
जैन श्रमणी-संघ और नारी उत्थान : 49 सम्पूर्ण देश, अन्ततः सम्पूर्ण मानवता का कल्याण हो रहा है, अतः महिला शिक्षा के क्षेत्र में श्रमणी-संघ की प्रासंगिकता स्पष्ट है। यह विदित है कि जैनधर्म का उदय ऐसे समय में हुआ जब समाज में नारी की स्थिति अच्छी नहीं थी, पवित्रता या शुद्धता को लेकर उनको विभिन्न धार्मिक क्रियाओं से वंचित किया जा रहा था। जन्म से मृत्यु तक वह पुरुषों के नियन्त्रण में रहकर तमाम पीड़ा सह रही थी। सामाजिक परिस्थितियों के कारण समाज में सदा से ही पुत्री की अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्त्व दिया जाता रहा है, कोई भी काल या धर्म इसका अपवाद नहीं रहा, किन्तु श्रमणी-संघ की स्थापना ने इस भेददृष्टि को काफी हद तक कम किया। अब पुत्री पिता के लिए भारस्वरूप नहीं है, अपितु संघ में प्रविष्ट होकर उनके लिए गौरव का कारण बनी है। श्रमणी-संघ नारियों की स्वाभिमान-रक्षा के लिए अनेक सराहनीय कदम उठा रहा है। यद्यपि संघ में श्रमणी की शीलरक्षा के लिए उचित व्यवस्था की जाती थी, श्रमण-संघ पर भी इसकी जिम्मेदारी थी, तथापि आगमिक व्याख्याओं में ऐसी घटनाओं के भी उल्लेख आये हैं, जब महिलाओं एवं श्रमणियों के साथ जबरदस्ती की गयी। ऐसी स्थिति में भी संघ द्वारा उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार किया जाता था तथा गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा की जिम्मेदारी वहन की जाती थी। बच्चे को पालने के पश्चात् श्रमण-संघ को सौंपकर श्रमणी पुन: संघ में प्रवेश पा लेती थी।” ऐसी श्रमणी की आलोचना या तिरस्कार का अधिकार किसी को नहीं था। ऐसा करने वाले के लिए दण्ड की व्यवस्था थी। श्रमणी-संघ की उक्त व्यवस्था से वर्तमान समय में इस तरह के उत्पीड़न से त्रस्त नारी समाज का बड़ा ही हित हो सकता है। तत्कालीन समाज में सतीप्रथा नारी उत्पीड़न का सबसे वीभत्स रूप बन चुका था, निशीथचूर्णिी में एक ऐसा उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार सौपारक के पाँच सौ व्यापारियों द्वारा कर न देने के कारण राजा ने उन्हें जला देने का आदेश दे दिया था। उक्त उल्लेख के