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संस्कृतकाव्यशास्त्र एवं प्राकृतकाव्यसाहित्य ... : 41 प्रतीपालंकार के उदाहरणार्थ प्राकृत गाथा, यथा
ए एहि दाव सुन्दरि ..... चन्दो उअमिज्जह जणेण । । 43 विशेषालंकार के उदाहरण प्रसंग में प्राकृत गाथा, यथासा वसइ तुज्झ....... कत्थ पावाणं । ।“ अतद्गुण अलंकारनिरूपणप्रसंग में उदाहृत प्राकृत गाथा, यथाध्वलोसि जहवि सुन्दर .. .. णिहित्तो ण रत्तोसि । । 45 संसृष्टि अलंकार निरूपण के प्रसंग में
सीणत्थि एत्थ गामे जो एअं..
.. णिवारेइ । 146 उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि महाराष्ट्री प्राकृत में लिखित साहित्य का विशिष्ट एवं उच्च स्थान है, जो इसे संस्कृत साहित्य के समान प्रतिष्ठापित करता है । इसलिए आलंकारिकों ने संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य की समान रूप से प्रशंसा एवं सराहना की है। प्राकृत के साहित्यिक गाथाओं में अलंकारों की बड़ी सुन्दर एवं सरस विच्छित्ति पाई जाती है, फलतः संस्कृत के आलंकारिकों ने अलंकारों एवं ध्वनि के भेदोपभेदों के लक्षणों में लक्ष्य की संगति के लिए प्राकृत साहित्य के गाथाओं को • प्रचुरता से उदाहृत किया है। संस्कृत के प्राचीन कवियों, नाटककारों, कथाकारों, आलोचकों एवं आलंकारिकों की एक लम्बी सूची प्राप्त होती है जिन्होंने प्राकृत के प्रति या तो स्वयं प्राकृत में रचना करके या अन्यरचित गाथाओं को उदाहृत करके प्राकृत साहित्य के प्रति अपार श्रद्धा प्रकट किया है साथ ही प्राकृत साहित्य के काव्यशास्त्रीय वैशिष्ट्य एवं साहित्यिक सौन्दर्य के कारण उत्तमकाव्य के रूप में अंगीकार किया है ।
सन्दर्भ :
1.
2.
3.
4.
काव्यादर्श, दण्डी, 1-34
नाट्यशास्त्र, 25-122
वही, 25-121, 123, 127 / अ. 5-165
काव्यालङ्कार, 1-16