Book Title: Sramana 2014 07 10
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 38
________________ संस्कृतकाव्यशास्त्र एवं प्राकृतकाव्यसाहित्य... : 31 विषमबाणलीला, पंचबाणलीला, कर्पूरमंजरी, कुवलयाश्वचरित एवं चन्द्रकलानाटिका इसका प्रमाण है। रूपकसाहित्य के सन्दर्भ में नाटकशास्त्र का सत्रहवां अध्याय, दशरूपक का द्वितीय प्रकाश एवं साहित्यदर्पण का षष्ठ परिच्छेद प्राकृतरूपकसाहित्य के विधि-विधान की पूर्णमीमांसा प्रस्तुत करता है। लोक के महत्त्व को संस्कृत के आलंकारिकों ने एक स्वर से स्वीकार किया है। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में त्रिविध प्रमाणों के अन्तर्गत लोक को सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण माना है। लोको वेदस्तथाध्यात्म प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्। भरतमुनि ने लोकसिद्धता को नाट्य के लिए आवश्यक मानते हुए कवियों, रचनाकारों एवं नाटक-प्रयोक्ताओं के लिए स्पष्टरूप से लोकग्राह्यता का निर्देश प्रदान किया है।' लोकसाहित्य की सर्वजनगम्यता के कारण आलंकारिकों ने स्वाभाविक रूप से अधिकांश काव्यशास्त्रीय तत्त्वों, पदार्थों एवं भेदोपभेदों के निर्धारण में प्राकृत-काव्यसाहित्य की गाथाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। सर्वप्रथम आचार्य भामह ने भाषा के आधार पर काव्य का वर्गीकरण प्रस्तुत किया। यथा संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रशं इति त्रिधा। 4 उस युग में काव्यरचना की तीन भाषाएं प्रचलित थीं- संस्कृत, प्राकृत, एवं अपभ्रंश । कवि इनमें से किसी को भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना सकता था। काव्यभाषा के रूप में प्राकृत एवं अपभ्रंश का संस्कृत के समान समादर था। आचार्य दण्डी ने काव्यादर्श नामक स्वग्रन्थ में भाषा भेद से काव्य को चार प्रकार का बताया है। यद्यपि प्रारम्भिक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों जैसे- काव्यालंकार, काव्यादर्श, काव्यालंकारसारसंग्रह, आदि में प्राकृत काव्यसाहित्य के उदाहरण नहीं मिलते, लेकिन इन ग्रन्थों में प्राकृत काव्य को संस्कृत एवं

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