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20 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4/जुलाई-दिसम्बर 2014 होती है, पर अन्य जीवों में इनकी समानता का नियम नहीं है। द्रव्य लेश्या आयुपर्यन्त एक ही रहती है पर भाव लेश्या जीवों के परिणामों के अनुसार बराबर बदलती रहती है। कषाय के. उदय से अनुरंजित मोह और योग की प्रवृत्ति को भावलेश्या और शरीर के पीत-पद्मादि वर्णों को द्रव्यलेश्या कहते हैं। द्रव्यलेश्या पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से होती है। अतः आत्मभावों के प्रकरण में उसका यहाँ ग्रहण नहीं किया है। भावलेश्या कषाय के उदय से अनुरंजित योगवृत्ति का निमित्त पाकर होती है, इसलिए कषाय औदयिकी कही जाती है। लेश्याओं का स्वरूपकषाय से अनुरंजित मोह और योग के परिणाम को लेश्या कहते हैं। लेश्या मुख्यरूप से द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की है। भावलेश्या छह प्रकार की है। लेश्या के भेदों का वर्णन करते हुए पंचाट यायीकार कहते हैं कि -
लेश्या षडेव विख्याता भावा औदयिकाः स्मृताः ।
यस्माद्योगकशायाम्यां द्वाभ्यामेवो दयोद्भवाः ।।' लेश्याओं के छह भेद हैं-1. कृष्ण 2. नील 3. कापोत 4. पीत 5. पद्म 6. शुक्ल । इन्हीं छह भेदों से लेश्यायें प्रसिद्ध हैं। लेश्यायें भी जीव के
औदयिक भाव हैं, क्योंकि लेश्यायें योग और कषायों के उदय से होती हैं। कर्मों के उदय से होने वाले आत्मा के भावों का नाम ही औदयिकभाव है। योग और कषाय के समुदाय का नाम लेश्या है तथा यह लेश्या ही प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग इन चारों प्रकार के बन्ध का कारण है। (i) कृष्णलेश्या :
चंडो ण मुचइवेरं, भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं, लक्खणमेयं तु किण्हस्स।।'