Book Title: Sramana 2014 07 10
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 15
________________ 8 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3 - 4 / जुलाई - दिसम्बर 2014 2. द्वितीय लक्षण के अनुसार जो परिच्छिन्न, सीमित अथवा असर्वगत परिमाण वाले द्रव्य हैं, वे मूर्त्त हैं ।" 3. तृतीय लक्षण में कहा गया है कि जो स्पर्शादि संस्थान परिमाण वाला होता है वह मूर्त होता है । 12 4. चतुर्थ लक्षण के अनुसार जो क्रियावान् है वह मूर्त है । 13 इनमें से जैनदर्शन द्वारा प्रथम लक्षण मान्य है, अन्य लक्षणों की चर्चा वैशेषिक द्वारा की जाती है। जैनदर्शन में पुद्गल द्रव्य के अतिरिक्त किसी द्रव्य को मूर्त्त की कोटि में नहीं रखा गया है। अतः धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं कालद्रव्य अमूर्त हैं तथा एक मात्र पुद्गल द्रव्य मूर्त्त है । जैनों की इस मान्यता पर आक्षेप करते हुए वैशेषिक कहते हैं कि धर्म, अधर्म, कालाणु, एवं जीव अमूर्त नहीं हो सकते क्योंकि वे असर्वगत द्रव्य हैं । जो असर्वगत द्रव्य होता है वह अमूर्त नहीं होता है, पुद्गल के समान । असर्वगत होने का अर्थ है - सर्वव्यापक न होना । धर्म, अधर्म, कालाणु एवं जीव उतने व्यापक नहीं हैं, जितना कि आकाश व्यापक है, क्योंकि आकाश अलोक में भी रहता है एवं ये द्रव्य लोक पर्यन्त रहते हैं । अतः आकाश की अपेक्षा अव्यापित्व होने से इन्हें वैशेषिक मूर्त्त सिद्ध कर रहे हैं । किंतु आचार्य विद्यानन्द उत्तर देते हैं कि हम जैन भी धर्म, अधर्म आदि को सर्वगत परिमाण स्वीकार नहीं करते, अतः आप वैशेषिक का कथन सिद्धसाधन है। 14 जैनदर्शन में रूपी को ही मूर्त स्वीकार किया गया है। अतः वैशेषिकों की ओर से पुनः आक्षेप किया गया है कि स्पर्शादि संस्थान परिमाण मूर्ति है तथा इसके सद्भाव वाला द्रव्य मूर्त होता है, और धर्मास्तिकायादि द्रव्य स्पर्शादिसंस्थान वाले हैं, अतः वे अमूर्त नहीं हो सकते। वैशेषिकों के इस तर्क का खण्डन करते हुए तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानन्द कहते हैं कि आपके द्वारा जिसे पक्ष बनाया गया है वह अनुमान से बाधित है तथा जो हेतु दिया गया है वह कालात्ययादिष्ट (बाधित विषय ) है । 15 यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जैनदर्शन में धर्म, अधर्म, आकाशादि में स्पर्शादि

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