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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में सामान्य, विशेष ... : 7 वैशेषिक दर्शन की यह मान्यता है कि गुण में गुण नहीं रहता', इसीलिए रूपादि किसी भी गुण में वैशेषिक दर्शन मूर्त्तत्व गुण को अंगीकार नहीं करता। कर्म पदार्थ में कोई गुण नहीं रहता, क्योंकि कर्म को भी गुण एवं कर्म से रहित स्वीकार किया गया है। मूर्त्तत्व के स्वरूप को लेकर जैनदर्शन एवं वैशेषिक दर्शन में मतभेद है। वैशेषिक दर्शन जहाँ परिच्छिन्न, अवच्छिन्न या अव्यापी परिमाणवाले द्रव्यों को मूर्त कहता है वहाँ जैनदर्शन में रूपी अर्थात् पुद्गल पदार्थों को मूर्त स्वीकार किया गया है। जैन दार्शनिकों द्वारा ऐसा स्वीकार करने से देह परिमाण के रूप में परिच्छिन्न आत्मा का भी अमूर्त्तत्व सुरक्षित रह जाता है, अन्यथा वैशेषिकों के लक्षण के आधार पर आत्मा भी मूर्त की कोटि में प्रवेश कर सकती थी, किन्तु रूपी नहीं होने से वह अमूर्त है। जैनदर्शन में पुद्गल का ही सूक्ष्मतम स्वतंत्र खण्ड होने के कारण परमाणु भी मूर्त है, क्योंकि वह रूप, रस, गंध एवं स्पर्श से युक्त है। वैशेषिक दर्शन में भी परिच्छिन्न परिमाण वाला होने से उसे मूर्त स्वीकार किया गया है। वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, अप, वायु, एवं मन इन पाँच द्रव्यों को ही मूर्त माना गया है, आकाश, काल, दिशा एवं आत्मा पूर्णतः व्यापक हैं, परम् महत्परिमाण वाले हैं, अतः उन्हें अमूर्त स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन में पृथ्वी, अप् आदि रूपी होने से पुद्गल के अन्तर्गत आ जाते हैं। जैनदर्शन में मूर्त का क्षेत्र वैशेषिक दर्शन से भी अधिक है, क्योंकि इसमें शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप, उद्योत आदि से युक्त को भी मूर्त माना गया है। वैशेषिक दर्शन में शब्द मूर्त नहीं हो सकता, क्योंकि वह गुण है। गुण में गुण नहीं रहता, इस नियम से शब्द गुण में परिमाण गुण नहीं रहता। जैनदर्शन में शब्द पुद्गल द्रव्य है अतः वह रूपी होने से मूर्त है। अष्टविध, कर्म, एवं अष्टविध वर्गणाएँ भी जैन दर्शन में मूर्त के अन्तर्गत ही समाविष्ट होती हैं। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में मूर्त्त के चार लक्षण प्राप्त होते हैं
1. एक लक्षण है ‘रूपं मूर्तियेषां तानि मूर्तानि' अर्थात् रूप को मूर्ति ___ कहते हैं तथा मूर्ति वाले रूपी द्रव्य मूर्त हैं।10