Book Title: Sramana 2014 07 10
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 16
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में सामान्य, विशेष ... : १ संस्थान परिमाण स्वीकृत नहीं हैं। अतः वैशेषिकों की प्रतिज्ञा ही बाधित है। दूसरी बात यह है कि उनका हेतु हेत्वाभास है। विद्यानन्द दूसरा सद्हेतु प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि धर्म, अधर्म आदि द्रव्य मूर्तिमान नहीं हैं, पुद्गल से भिन्न द्रव्य होने के कारण, आकाश के सामान । यह अनुमान वाक्य विवादाध्यासित धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों का अमूर्तत्व सिद्ध करता है। यदि कहा जाए कि सुखादि पर्यायों में हेतु के नहीं जाने से यह हेतु भागासिद्ध है तो यह कहना उचित नहीं, क्योंकि उनको यहाँ पक्ष ही नहीं बनाया गया है। अर्थात् उनकी यहाँ चर्चा ही नहीं है। यदि यह प्रश्न किया जाए कि सुख, ज्ञान आदि पर्यायों में अमूर्त्तता किस प्रकार सिद्ध है तो कहना होगा कि इसके लिए अन्य हेतु कहा जा रहा है। सुखादि अमूर्तद्रव्य आत्मा के पर्याय हैं अतः मूर्त नहीं, अमूर्त द्रव्य के पर्याय होने से, आकाश की पर्याय के समान। यहाँ प्रश्न उठाया गया कि सुख, ज्ञान आदि को भले ही अमूर्त मान लिया जाए, किन्तु मूर्तिमान् द्रव्यों की रूपादि पर्यायों को अमूर्त कैसे कहा जाएगा? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य विद्यानन्द कहते हैं कि 'उनमें अमूर्त्तत्व किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे पुद्गल द्रव्य स्वयं मूर्तिमान् हैं। मूर्त पुद्गलों की रूपादि पर्याय भी मूर्त ही हैं। हाँ एक नियम है कि गुण में अन्य कोई गुण नहीं होने से वह निर्गुण कहलाता है। इसी प्रकार रूपादि मूर्त हैं, किन्तु उनमें अन्य मूर्तत्व आदि गुण नहीं रहने की अपेक्षा से उन्हें अमूर्त कहा जा सकता है' ।” तात्पर्य यह है कि यद्यपि रूपादि गुण मूर्त द्रव्यों में रहने से भले ही मूर्त कहे जाएं, किन्तु इनमें मूतत्व गुण नहीं रहने से ये अमूर्त माने जा सकते हैं। वैशेषिकों द्वारा मान्य सामान्य, विशेष एवं समवाय को लेकर भी आचार्य विद्यानन्द ने मूर्त्तत्व का विचार किया है। वे सामान्य, विशेष एवं समवाय का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि सदृश परिणाम लक्षण वाला सामान्य, विसदृश परिणाम लक्षण वाला विशेष तथा अपृथग्भाव लक्षण वाला समवाय कहलाता है। ये सामान्य जब मूर्त्त

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