Book Title: Sramana 2014 07 10
Author(s): Ashokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 12
________________ सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव : 5 है, लेकिन गृहस्थ सांसारिक जीवन में है, फिर भी अहिंसा के साथ अपरिग्रह की साधना गृहस्थों के लिए भी आवश्यक है, भले उसकी कुछ मर्यादा हो। अपरिग्रह के बिना अहिंसा संभव ही नहीं तथा विनम्रता और सदाचार के बिना सत्य धर्म का पालन ही नहीं हो सकता। इसलिए गाँधी ने जैन धर्म के सर्वोदय विचार को युगानुकूल और व्यावहारिक बनाने के लिए उसे व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक उत्कर्ष को भी साधन बनाया। निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि समन्तभद्र और गाँधी दोनों यह मानते हैं कि व्यक्तिगत जीवन शुद्धि के बिना हम समाजशुद्धि की कल्पना नहीं कर सकते हैं, इसलिए दोनों में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। आचार्यश्री सर्वोदय विचार की नींव हैं। गाँधी सर्वोदय रूपी भव्य भवन-कलश हैं। समन्तभद्र के अनुसार सर्वोदय तीर्थ व्यक्ति को तारता हुआ मोक्ष प्रदान करता है। गाँधी का सर्वोदय व्यक्ति को तो मुक्ति देता ही है साथ-साथ समाज को भी सर्वतोभद्र रूप से विकसित करता है। जैन परम्परा ने आगे चलकर जन्मना जाति प्रथा और हिंसा के विकृततम् रूप धर्म के नाम पर पशुबलि का विरोध किया था। वहीं गाँधी ने समूचे विश्व में अहिंसा का प्रचार किया। आचार्य समन्तभद्र ने जैन शास्त्रों के अनुकूल ही सर्वोदय तीर्थ का प्रतिपादन किया। वहाँ गाँधी ने केवल अपने साम्प्रदायिक धर्म के प्रति श्रद्धा और निष्ठा व्यक्त करते हुए सर्वधर्मसमभाव की भावना को आगे बढ़ाया। अनेकांत विचार के अनुसार यह कहना कि केवल हमारा धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है शायद समीचीन नहीं होगा। इसीलिए आज आचार्य गाँधी ने अहिंसा को वैश्विक और सर्वधर्मावलम्बी बनाकर अनेकान्तवाद को ही सशक्त किया है। अनेकान्त केवल शब्द नहीं भावना का नाम है। *****

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