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पूर्व मध्यकालीन राजस्थान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का विकास : 3
परमार वंश की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शाखा मालवा में शासन कर रही थी। इसकी राजधानी धारा नगरी थी। मालवा के परमार शासकों ने भी जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रति सहिष्णु दृष्टिकोण अपनाया। इस वंश का पहला ऐतिहासिक व्यक्ति वैरिसिंह था । यह वज्रट् स्वामी भी कहलाता था।' वैरिसिंह का उत्तराधिकारी सीयक हुआ । सम्भवतः सीयक ने अपने राज्य में जैन कवि धनपाल को संरक्षण दिया। धनपाल ने 972 ई0 में अपना काव्यग्रंथ 'पायक्षीमल' को पूरा किया।
सीयक के पश्चात् उसका पुत्र वाक्पतिराज 'मुंज' 973 ई0 में परमार राजगद्दी का उत्तराधिकारी हुआ।° मुंजराज सीयक का औरस पुत्र न होकर पाल्य पुत्र था । लगता है कि मुंजराज नाम की व्याख्या करने के उद्देश्य से यह अनुश्रुति प्रचलित हो गयी कि मुंजों के झुरमुट में फेंके हुए नवजात शिशु को सिंहदन्तभृट अर्थात् सीयक ने देखा और स्वयं अपुत्रक होने के नाते उसे उठा लिया, अपनी पुत्र पिपासा शान्त करने के लिए उसे प्रेम से पाला-पोसा और अन्त में अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।" मुंज के दरबार में प्रसिद्ध कवि धनपाल ने संरक्षण पाया। धनपाल द्वारा रचित 'तिलकमंजरी' में उल्लेख है कि राजा मुंज ने इस कवि को 'सरस्वती' नामक उपाधि प्रदान किया था | 12 'तिलकमंजरी' में परमार वंश की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। यहाँ उनकी उत्पत्ति वशिष्ठ के आबू के यज्ञ कुण्ड से बताई गई है। 13 मुंज के दरबार में अन्य कवियों ने भी राजाश्रय प्राप्त किया। इनमें अमितगति ने 'सुभाषित रत्न संदोह', पद्मगुप्त ने 'नवसाहसांक चरित' की रचना की । धनपाल का छोटा भाई शोभन भी मुंज के दरबार में रहता था। उसने 'चतुर्विंशिका स्तुति' नामक ग्रंथ की रचना की थी । 14 धनपाल का निधन सम्भवतः 994-97 ई0 में हुआ। इसके पश्चात् सिन्धुराज राज्य का उत्तराधिकारी हुआ । सिन्धुराज ने अल्पकाल तक शासन किया तत्पश्चात् भोज सत्तासीन हुआ।
भोज परमार वंश का अत्यन्त प्रतिभाशाली शासक था। विभिन्न प्रमाणों के आधार पर डॉ0 विशुद्धानन्द पाठक इसके राज्यारोहण की तिथि 1010 ई0 स्वीकार करते हैं।" वह अनेक विद्वानों का आश्रयदाता भी था । कवि धनपाल प्रारम्भ से ही उसके दरबार में रहा । धनपाल ने राजा भोज को प्रसन्न करने के लिए 'तिलकमंजरी' की रचना किया ।" राजा भोज स्वयं भी एक महान् विद्वान् था तथा उसने विभिन्न विषयों पर दो दर्जन ग्रंथों की रचना की। वह एक सहिष्णु राजा था। वह जैन आचार्यों के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता था। एक अभिलेख से सूचना मिलती है कि राजा भोज जैन साधु प्रभाचन्द्र के चरणों की पूजा करता था । "