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42 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 4 / अक्टूबर-दिसम्बर 2012 अथवा वस्तु हमें आखों से दिखाई दे रही है वह सभी पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं। धर्मद्रव्य उत्तराध्ययन7 में धर्म द्रव्य का लक्षण गति-क्रिया सहायक बताया गया है। पंचास्तिकाय में कुन्दकुन्द स्वामी धर्मद्रव्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि धर्मास्तिकाय अमूर्त है, इसमें स्पर्श आदि पौद्गलिक गुण नहीं है, वह सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है, असंख्य प्रदेशी है, गतिशील जीव और पुद्गलों की गति में वह सहायक है, जैसे-गमन करती हुई मछली का सहायक पानी है। द्रव्यसंग्रह में भी कहा है कि
गइपरियाण धम्मो पुग्गल जीवाण गमणसहयारी।
तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो णेई।" कार्यकारणवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य के लिए दो प्रकार के कारण आवश्यक हैं-उपादान और निमित्त। उपादान कारण वह है, जो स्वयं कार्यरूप में परिणत होता है, निमित्त कारण वह है जो कार्य के निष्पन्न होने में सहायक हो। यदि किसी पदार्थ की गति होती है तो उसमें उपादान कारण तो वह पदार्थ स्वयं है, किन्तु निमित्त कारण क्या है? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए हमें कोई ऐसे पदार्थ की आवश्यकता होती है, जिसकी सहायता पदार्थ की गति में अनिवार्य हो। यदि हवा आदि को निमित्त कारण माना जाये तो यहाँ एक नया प्रश्न उठता है कि हवा आदि की गति में कौन निमित्त कारण है? यदि इसी प्रकार अन्य द्रव्य को निमित्त कारण माना जाये तो कारणों की परम्परा अनवरत रूप से चलती रहेगी और अनवस्था दोष का प्रसंग आ जाएगा। इसलिए ऐसे पदार्थ की आवश्यकता है जो स्वयं गतिमान न हो। यदि पृथ्वी, जल आदि स्थिर द्रव्यों को निमित्त कारण के रूप में माना जाए तो भी युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि वे पदार्थ समस्त लोकव्यापी नहीं हैं। यह आवश्यक है कि गति-माध्यम के रूप में जिस पदार्थ को माना जाता है, वह सर्वव्यापी हो, इस प्रकार किसी एक द्रव्य की कल्पना करनी पड़ती है, जो1. स्वयं गतिशून्य हो, 2. समस्त लोक में व्याप्त हो, 3. दूसरे पदार्थों की गति में सहायक हो। ऐसा द्रव्य धर्मद्रव्य है, जो स्वयं गतिशून्य है, समस्त लोक में व्याप्त है और दूसरे पदार्थों की गति में सहायता करता है।