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तत्त्व विद्या के त्रिआयामी.... : 43 अधर्म द्रव्य अधर्म 'द्रव्य का स्वरूप भी धर्म द्रव्य जैसा ही है। मात्र उसके विशेष गुणों में अन्तर पड़ता है। धर्म-द्रव्य जैसे जीव और पुद्गल की गति में सहायक है, वैसे. ही अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति में उदासीन रूप से सहायक होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में कहा है कि
जह हवदि धम्मदव्वं तहं तं जाणेह दव्वमधमक्खं।
ठिदिकिरिया जुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव॥ उमास्वामी एवं नेमिचन्द्राचार्य ने भी इसी प्रकार अधर्म द्रव्य का लक्षण किया है। धर्म और अधर्म द्रव्य की आवश्यकता पंचास्तिकाय में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जिस प्रकार गति-स्थिति के निमित्त के रूप में धर्म और अधर्म द्रव्यों की आवश्यकता है, उसी प्रकार लोक-अलोक का विभाजन उन दो द्रव्यों के सद्भाव से होता है। इसी की टीका में अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि लोक सीमित है और उससे आगे अलोकाकाश असीमित है, इसलिए पदार्थों की और प्राणियों की व्यवस्थित रूपरेखा को बनाए रखने के लिए आकाश के अतिरिक्त कोई अन्य तत्त्व होना चाहिए। यदि गति और अगति का माध्यम आकाश को ही मानें तो फिर अलोकाकाश का अस्तित्व ही नहीं रहेगा और लोक-व्यवस्था का भी लोप हो जाएगा। इसी के आगे पंचास्तिकाय की 94वीं गाथा की टीका में कहा है कि आकाश गति स्थिति का हेतु नहीं है। अतः सम्पूर्ण स्थिति पर विचार करें तो षद्रव्य में से यदि पुद्गल स्वयं गतिशील है तो कालद्रव्य जो निश्चयकाल है, वह तो जीव-अजीव की पर्याय मात्र है और लोकाकाश-अलोकाकाश में विद्यमान है एवं व्यवहारकाल तो सीमित है। अतः कालद्रव्य भी गति-स्थिति में सहायक नहीं है।
आकाश द्रव्य तो स्वयं विभाज्य है एवं उसमें अवगाहनत्व की क्षमता है। अतः यह भी गति स्थिति में सहायक नहीं है। अतः धर्मास्तिकाय और अध र्मास्तिकाय-ये दोनों ही गति और स्थिति की दृष्टि से द्रव्य का विभाजन करते हैं। जहाँ-जहाँ ये दोनों द्रव्य विद्यमान हैं, वहाँ-वहाँ जीव और पुद्गल गति करते हैं और स्थिर रहते हैं। जहाँ इनका अस्तित्व नहीं है, वहाँ कोई भी द्रव्य गति-स्थिति नहीं करता है। इसलिए कहा गया है कि धर्म-अधर्म द्रव्य को लोक तथा अलोक का परिच्छेदक मानना युक्तियुक्त है, इसीलिए इन्हें विभक्त-अविभक्त और लोकप्रमाण कहा गया है।36