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92 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 4 / अक्टूबर-दिसम्बर 2012 टीका से अलंकृत है। मूल पुस्तक पर वृत्तिकार तर्कपञ्चानन अभयदेवसूरीजी की तत्त्वबोधविधायिनी टीका प्राप्त होती है। पू. हरिभद्रसूरी से लेकर महोपाध्याय यशोविजय जी, श्री विजयकान्त सूरी आदि अनेक जैन विद्वानों ने इसका अध्ययन किया एवं अपने ग्रन्थों में इस ग्रन्थ की गाथाओं का उद्धरण करके इस ग्रन्थरत्न का गौरव बढ़ाया। इस ग्रन्थरत्न के अध्ययन के बिना द्रव्यानुयोग में गीतार्थता अपूर्ण रहती है। इस ग्रन्थ की महत्ता को देखते हुए पूज्यवर आचार्य जयसुन्दरसूरी जी ने तत्त्वबोधविधायिनी टीका से अलंकृत करके सर्वप्रथम हिन्दी विवेचन सहित प्रथम भाग को जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत कर एक महनीय कार्य किया है। प्रस्तुत प्रथम खण्ड में प्रामाण्यवाद, वेदपौरुषेयवाद, शब्दनित्यत्वसिद्धिपूर्वपक्ष, सर्वज्ञतावाद, ज्ञानस्वप्रकाशवाद, ईश्वरकर्तृत्ववाद, ईश्वरकर्तृत्ववाद समालोचना, समवाय समीक्षा, आत्मविभुत्व स्थापन, मुक्तिस्वरूप मीमांसा जैसे गुरुत्तर विषयों का प्रतिपादन एवं अन्य भारतीय दर्शनों के साथ तर्कपूर्ण समीक्षा प्रस्तुत की गई है। प्रस्तुत पुस्तक अन्यान्य दर्शनों का बोध एवं जैन दर्शन के तत्त्वों के बारे में सही मान्यता तथा विश्व को जैन धर्म की विशिष्ट देन अनेकान्तवाद का सम्यक् बोध कराती है। पुस्तक के अंत में सुदीर्घ परिशिष्ट एवं शुद्धिपत्रक इस ग्रन्थ की गरिमा को बढ़ा रहें हैं। ग्रन्थ में सर्वत्र समीक्षात्मकता दृष्टिगोचर होती है। जैन दर्शन में प्रतिपादित ज्ञानमीमांसा, अनेकान्तवाद आदि को समझने के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी तथा शोधार्थियों के लिए पठनीय एवं संग्रहणीय है।
डॉ. नवीन कुमार श्रीवास्तव रिसर्च एसोसिएट, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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