Book Title: Sramana 2012 10
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 47
________________ 40 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 4 / अक्टूबर-दिसम्बर 2012 द्वारा निर्मित है? इन सर्व प्रश्नों का समाधान पाने का प्रयत्न सम्पूर्ण दर्शन जगत् का विषय रहा है। चाहे भारतीय हो या पाश्चात्य सभी दार्शनिकों ने इस सत्य तक पहुँचने का प्रयत्न किया कि इस विश्व का मूल क्या है? दृश्यमान जमत् का कारण क्या है? यह क्यों है? इसका कर्ता कौन है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयत्न सभी भारतीय दार्शनिकों ने एवं पाश्चात्य दार्शनिकों ने किया है। पाश्चात्य दार्शनिकों में से किसी ने विश्व का परम द्रव्य जल, तो किसी ने संख्या आदि स्वीकार किया है। भारतीय दर्शन जगत् की दो धाराएँ-द्वैतवाद एवं अद्वैतवाद हैं। उनमें से अद्वैतवादीधारा में जड़ाद्वैत तो जड़तत्त्व को ही सृष्टि का उपादान कारण मानता है एवं चैतन्य अद्वैतवादी चेतन तत्त्व को सृष्टि का मूल कारण मानता है। वेदान्त दर्शन भी इसी मत का समर्थक है। द्वैतवादी दर्शन जड़ और चेतन का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार इन दो तत्त्वों की समन्विति ही संसार है। जड़ एवं चेतन की पारस्परिक क्रिया से जगत् का निर्माण होता है। न्याय, वैशेषिक और मीमांसा दर्शन सृष्टि पक्ष में आरम्भवादी हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा परमाणुओं को संयुक्त करता है। उनके संयोग का आरम्भ होने पर विश्व का निर्माण होता है। सांख्य और योग दर्शन परिणामवादी हैं। उनके अनुसार सृष्टि का कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है। जैन दर्शन तो विश्व के सन्दर्भ में कहता है कि पंचास्तिकाय मयोलोक' अथवा षड्द्रव्यात्मको लोक अर्थात् जिसमें जीव पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य पाये जाते हैं, वह विश्व है। वहां सहज ही प्रश्न उत्पन्न होता है कि जीव किसे कहते हैं? जीवद्रव्य तत्त्वार्थसूत्र में उपयोग का लक्षण बताते हुए कहा गया है 'उपयोगो लक्षणम् अर्थात् जीव का लक्षण उपयोग है एवं जो चेतयिता, उपयोग विशेष वाला है, वह जीव है। समयसार में अरस, अरूपी, अगंध स्वभाव वाला जीव को कहा है113 एवं द्रव्यसंग्रह में नेमिचन्द्राचार्य सर्व परिभाषाओं को समादृत करते हुए कहते हैं - जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो. सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई। अर्थात् जो उपयोगमय, अमूर्त, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, संसार में स्थित

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