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तत्त्व विद्या के त्रिआयामी.... : 39
व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ
सामान्यतः 'द्रु' धातु से यत् प्रत्यय लगाने पर निपातन से द्रव्य शब्द की सिद्धि होती है। द्रु=वृक्ष या काष्ठ, वय-विकार या अवयव अर्थात् वृक्ष या काष्ठ का विकार । द्रव्य शब्द को इवार्थक निपात मानना चाहिए। 'द्रव्यं भव्य' इस जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रानुसार 'द्रु' की तरह जो हो, वह द्रव्य है, यह समझ लेना चाहिए। जिस प्रकार बिना गांठ की सीधी 'द्रु' अर्थात् लकड़ी बढ़ई आदि के निमित्त से टेबल-कुर्सी आदि अनेक आकारों को प्राप्त होती है, उसी तरह द्रव्य भी उभय ( बाह्य और आभ्यन्तर) कारणों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है, जैसे पाषाण खोदने से पानी निकलता है, यहाँ अविभक्त कर्तृकरण है, उसी प्रकार द्रव्य और पर्याय में भी समझना चाहिए |
जैन साहित्य में भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा कुछ अन्तर के साथ 'द्रव्य' शब्द की भिन्न-भिन्न अर्थों में व्युत्पत्ति की गयी है। आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में कहते हैं कि उन-उन सद्भाव पयार्यों को जो द्रवित होता है, प्राप्त होता है, उसे 'द्रव्य' कहते हैं, जो कि सत्ता से अनन्यभूत है । '
आचार्य उमास्वामी' कहते हैं कि सद्द्रव्य लक्षणम् एवं गुणपर्यायवद् द्रव्यम् अर्थात् सत्तास्वभाव द्रव्य का लक्षण है एवं द्रव्य गुण पर्यायवान होता है। जितनी भी द्रव्य शब्द की व्युत्पत्तियाँ स्वीकार की गई हैं, वे द्रव्य में विद्यमान गुण और पर्याय को आधार मानकर स्वीकार की गई हैं। पर्याय को आधार मानकर की गई व्युत्पत्तियों का तात्पर्य है; जो विशेष पर्यायों को प्राप्त करता है। तत्त्वार्थवार्तिक में पर्याय को आधार मानकर द्रव्य शब्द को परिभाषित करते हुए कहा है कि जो स्वतन्त्र कर्त्ता होकर अपनी पर्यायों को प्राप्त होता है अथवा अपनी पर्यायों के द्वारा जो प्राप्त किया जाता है, वह द्रव्य है।' इसी प्रकार गुण को आधार मानकर पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया गया था अथवा गुणों को प्राप्त हुआ था अथवा गुणों को प्राप्त होगा, उसे द्रव्य कहते हैं। "
द्रव्यमीमांसा की आवश्यकता क्यों ?
कर्त्ता, क्रिया और परिणाम यह एक घटनाक्रम है। कुछ घटनाओं में ये तीनों हमारे सामने होते हैं इसलिए वहाँ कर्तृत्व का प्रश्न उपस्थित नहीं होता । जहाँ परिणाम सम्मुख नहीं होता वे घटनाएँ कर्तृत्व का प्रश्न उपस्थित करती हैं। इसका सबल उदाहरण हमारा विश्व है, जिसमें हम निवास करते हैं। यह विशाल भूमण्डल किसके कुशल और सशक्त हाथों की कृति है ? ये उत्तुंग शिखर वाले पर्वत किसके हाथों द्वारा निष्पन्न हुए हैं? एवं यह अनन्त आकाश आदि किसके