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30 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 4 / अक्टूबर-दिसम्बर 2012 रखी जाए ताकि सूर्य-किरणें अधिक से अधिक मात्रा में गृह प्रवेश करके वातावरण को प्रदूषण से मुक्त कर सकें।
इसीलिए प्रायः सभी शुभ कार्य ऐशान दिशा से उन्मुख होकर करने से सफल होते हैं, उदाहरण के लिए चक्रवर्ती की विजय यात्रा इसी दिशा से आरंभ होती है, इष्टदेव की परिक्रमा इसी दिशा से दक्षिण-पूर्व रास्ते से, आगे बढ़ती है, इसीलिए दक्षिणावर्त परिक्रमा को प्रदक्षिणा भी कहते हैं। पूर्व दिशा पूर्व दिशा का स्वामी सौधर्म इन्द्र का लोकपाल सोम है। आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में कहा है
तम्मंदिर बहुमझे कीडण सेलो विचित्त रयणमओ।
सक्कस्स लोयपालो, सोमो कीडेदि पुव्व दिसणाहो॥ अर्थात् उस भवन के बहुमध्य भाग में अद्भुत रत्नमय एक क्रीड़ा शैल है। इस पर्वत पर पूर्वदिशा का स्वामी सौधर्म इन्द्र का सोम नामक लोकपाल क्रीड़ा करता है तथा उसके विमान का नाम बताते हुए कहा है
आउट्ठ कोडि आहिं कप्पज इत्थीहि परिउदो सोमो।
अद्धिय पण पल्लाउ रमदि सयंपह विमाण पहू॥ अर्थात् अढ़ाई पल्य प्रमाण आयुवाला स्वंप्रभ विमान का स्वामी सोम नामक लोकपाल साढ़े तीन करोड़ कल्पवासिनी देवियों से परिवृत्त होता हुआ रमण करता है तथा सोम लोकपाल के विमानों का परिवार 6 लाख 66 हजार 666 है। आचार्य यतिवृषभ ने सोम को पूर्व दिशा का स्वामी कहा है तथा वास्तुकारकों ने इन्द्र को पूर्व दिशा का स्वामी कहा है। यद्यपि इन्द्र पूर्वमुखी अपने आसन में विराजता है। उस इन्द्र की पूर्व दिशा में सोम लोकपाल निवास करता है जिससे सौधर्म इन्द्र के विमान की पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र है। आग्नेय दिशा पूर्व और दक्षिण दिशा के मध्य का स्थान आग्नेय दिशा कहलाती है। इसका स्वामी अग्नि है। इस दिशा का तत्त्व भी अग्नि ही है। तिलोयपण्णत्ती के अनुसार भवनवासी देवों में अग्निकुमार जाति के देवों का इन्द्र अग्निशखी दक्षिणेन्द्र होने के कारण पूर्व और दक्षिण के मध्य में निवास करता है। वह यहाँ से अपने शासन का संचालन करता है। इस दिशा में इसके 40 लाख भवन हैं जिनमें ईशान दिशा की ओर जिनमन्दिर बने हुए हैं। अनुमानतः यह कहा जा सकता है कि अग्निकुमार देव का स्वभाव भी अग्नि