Book Title: Sramana 2012 10
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ पूर्व मध्यकालीन राजस्थान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का विकास (परमार वंश के विशेष संदर्भ में)। डॉ० रविशंकर गुप्ता पूर्व मध्यकालीन राजस्थान में पोषित धर्मों में जैन धर्म का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। उस काल-क्रम में प्राप्त विभिन्न अभिलेख, शिलालेख और साहित्यिक साक्ष्यों से पता चलता है कि जैनधर्म के विकास में राजपूत राजाओं, विशेषकर परमार वंश के शासकों का अभूतपूर्व योगदान था। विद्वान् लेखक ने पुष्ट प्रमाणों के आधार पर पूर्व मध्यकालीन राजस्थान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विकास को रेखांकित करने का प्रयास किया है। -सम्पादक राजस्थान की सांस्कृतिक धारा में जैन धर्म एक महत्त्वपूर्ण क्रियाशील धार्मिक शक्ति रहा है। जैन धर्म की परम्पराओं, प्राचीन अभिलेखों और साहित्यिक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि राजस्थान प्रदेश में जैन धर्म व्यापक रूप से प्रचलित था। पूर्व मध्य काल को हम राजपूत काल के नाम से भी जानते हैं। इस काल में राजपूतों के उत्कर्ष से ही इस भू-प्रदेश में जैन मत बहुत समृद्ध और लोकप्रिय हुआ। यद्यपि किसी राजपूत राजा के जैन मतावलम्बी होने का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है, लेकिन किसी जैन मत विरोधी शासक का उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता है। मूलतः शैव या वैष्णव धर्म के अनुयायी होते हुए भी, विभिन्न राजपूत शासक धर्म-सहिष्णु और जैन मत के उदार संरक्षक थे। 'श्वेताम्बर सम्प्रदाय' जैन धर्म का एक प्रमुख भेद है जिसने देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार जैन धर्म के नियमों और विधि-विधानों को प्रासंगिक बनाकर अपने अनुयायियों में लागू किया। राजस्थान के राजपूत राजाओं में परमार वंश के राजा अपनी वीरता और धार्मिक सहिष्णुता के लिए जाने जाते हैं। परमार शासकों ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उन्नति में अत्यधिक योगदान दिया था। परमार वंश की कई शाखाएं अस्तित्व में थीं। उनमें से एक शाखा चन्द्रावती में स्थापित हुई जिसे हम चन्द्रावती और अर्बुद परमार के रूप में जानते हैं। इस वंश का पहला ऐतिहासिक व्यक्ति कृष्णदेव अथवा कन्हदेव था।' एक अभिलेख से हमें सूचना मिलती है कि राजा कृष्णदेव कृष्णराज के रूप में भी जाना जाता है। वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रति उदार

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