Book Title: Sramana 2012 10
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 20
________________ ज्ञान-ज्ञेय मीमांसा- जैनदर्शन का वैशिष्ट्य : 13 यह निश्चय नय का कथन है। अन्य जो परद्रव्य-संयोग के कथन हैं वे सब व्यवहारनय के कथन हैं। व्यवहारनय को असत्यार्थ कहने से यह नहीं समझना चाहिए कि आकाश कुसुम की भांति वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है, ऐसा सर्वथा एकान्त मानना मिथ्यात्व है। इसी प्रकार ज्ञान में कोई ज्ञेय अथवा घट प्रतिबिम्बित होता है तो ज्ञान घटाकार अपनी नियत शक्ति से अपने नियत समय में उत्पन्न हुआ है, मिट्टी का घट तो पहले से विद्यमान था, किन्तु ज्ञान का घट पहले नहीं था। ज्ञान ने अपने क्रमबद्ध प्रवाह में अपना घट अब बनाया है और उस घटाकार की रचना में ज्ञान ने मिट्टी के घट का अनुकरण नहीं किया है। ज्ञान में घटाकार की रचना, ज्ञान के अनादि-अनंत प्रवाह क्रम में नियत क्षण में हुई है। ज्ञान के सामने घड़ा है, अतएव घट ही प्रतिबिम्बित हुआ यह बात तर्क और सिद्धान्त की कसौटी पर भी सिद्ध नहीं होती। यदि उसे सिद्धान्तः स्वीकार कर लिया जाय तो लोकालोक तो सदा विद्यमान है फिर केवलज्ञान क्यों नहीं होता? पुनः यदि पदार्थ ज्ञान का कारण हो तो फिर सीप के दर्शन में चांदी की भ्रांन्ति क्यों हो जाती है अथवा वस्तु के न होते हुए भी केश में मच्छर का ज्ञान कैसे हो जाता है तथा भूत और भविष्य की पर्यायें तो वर्तमान में विद्यमान नहीं हैं उनका ज्ञान कैसे हो जाता है? अतः ज्ञेय से ज्ञान की सर्वाङ्गीण निरपेक्षता निर्विवाद है।14 एक ज्ञेय पदार्थ को देखकर जीवों के भाव भिन्न-भिन्न होते हैं। यदि ज्ञेय पदार्थ से ज्ञान होता तो सभी को एक से भाव होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता। इस बात को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है- रास्ते में मरी पड़ी हुई एक वेश्या को साधु, युवक चोर एवं कुत्ता देखता है। साधु को उसे देखकर विचार आता है कि इस वेश्या ने अपना जीवन धर्म में न लगाकर विषय भोगों में व्यर्थ ही गंवा दिया। युवक वेश्या को देखकर विचारता है कि वह कितनी खूबसूरत है, यदि पहले पता होता तो मैं उसके पास जरूर जाता। चोर को उसके आभूषणों को देखकर विचार आता है- यदि सब चले जाते तो मैं ठाट से उसके आभूषण उतार लेता। कुत्ता उसे मृतक जानकर विचार करता है कि कैसे मौका मिले मैं उसके मांस का भक्षण कर लूं। इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञेय से ज्ञान नहीं होता वरन् ज्ञान स्वतः अपनी योग्यता से अपने ही स्वकाल में होता है। ज्ञेय की किसी प्रकार की पराधीनता उसे स्वीकार्य नहीं है। उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट करने का प्रयास है कि ज्ञान सत्, अहेतुक, निरपेक्ष होता है, उसकी स्वतंत्र सत्ता है तथा उसकी सत्ता ज्ञेयों के आधीन नहीं है, परन्तु

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