________________
22 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 4 / अक्टूबर-दिसम्बर 2012 यह कह सकते हैं कि मानस्तम्भ की एक दिशा में सात प्रतिमा होने से मानस्तम्भ भी सात मंजिल का हो सकता है। व्यंतर देवों के आठ भेदों में आठ प्रकार के चैत्यवृक्ष क्रमशः पाए जाते हैं जिनमें अशोक, चंपा, नागकेसरि, तुंवडी, वट, कंटतरु, तुलसी, कदंब है। व्यंतर देवों के चैत्यवृक्ष में प्रतिमाओं की संख्या भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों से भिन्न है। कहा है चैत्यवृक्ष के चारों ओर चार-चार प्रतिमा तथा प्रत्येक प्रतिमा के आगे मानस्तम्भ हैं तथा प्रत्येक मानस्तम्भ के तीन कोट होते हैं। प्रत्येक कोट में चार-चार प्रतिमाएँ होती हैं अर्थात् चैत्यवृक्ष के चारों दिशाओं में 16 प्रतिमाएँ एवं 16 मानस्तम्भ हैं तथा सोलह मानस्तम्भ में 48 कोटे तथा 48 कोटों में 192 प्रतिमाएं विराजमान हैं। इस प्रकार 192 तथा 16 प्रतिमाओं के योग से 208 प्रतिमाएँ होती हैं 12 तथा वैमानिक. देवों में चार प्रकार के चैत्यवृक्षों के नाम आते हैं। त्रिलोकसार में कहा है कि सौधर्मादिक इन्द्रों के चारों वन में चार चैत्य वृक्ष होते हैं जिनमें अशोक, वनखण्ड, चंपक वनखण्ड, सप्तछद वनखण्ड और आम्र वनखण्ड हैं। इन चैत्यवृक्षों का माप जम्बूवृक्ष के समान है। तथा वनखण्ड पद्म तालाब के समान विस्तार वाला है अर्थात् मेरु पर्वत के ईशान दिशा में जम्बू वृक्ष है। जम्बू वृक्ष 500 योजन की स्थली में फैला हुआ है जिसकी ऊँचाई 10 योजन की तथा मध्य में 6 योजन चौड़ा तथा ऊपर 4 योजन चौड़ा है तथा वनखण्ड 1000 योजन लम्बा तथा 500 योजन चौड़ा है। देवभवन एवं वास्तु जैनदर्शन में 16 स्वर्ग, 9 ग्रैवेयक, 9 अनुदिश और 5 अनुत्तर विमान हैं जिनमें से 16 स्वर्गों में कल्पनाएँ हैं जिस कारण से हीनाधिक़ता स्वाभाविक है। देव भवनों या विमानों का प्रमाण बृहद्रव्य संग्रह में कहा है कि ऊर्ध्वलोक में 63 पटल होते हैं जिनमें 16 स्वर्ग, 9 ग्रैवेयक, 9 अनुदिश तथा 5 अनुत्तर विमान स्थित हैं। प्रत्येक स्वर्ग में एक-एक इन्द्रक विमान है। उन इन्द्रक विमानों की पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन श्रेणियों के विमान तथा नैऋत्य और आग्नेयविदिशाओं के प्रकीर्णक विमान की दिशा में सौधर्म, सनत्कुमार, ब्रह्म, लान्तव, शुक्र, शतार, आनत, आरण स्वर्गस्थित हैं तथा उत्तर श्रेणिबद्ध विमान तथा वायव्य और ईशानविदिशा के विमानों में ऐशान, माहेन्द्र, ब्रह्मोत्तर, कपिष्ठ, महाशुक्र, सहस्रार, प्राणत तथा अच्युत स्वर्गस्थित हैं। इसी प्रकार स्वर्ग के विमान में नगरों के विस्तार में अन्तर दृष्टिगत होता है। कहा है कि
चुलसीदीय असीदी बिहत्तरी सत्तरीय जोयणगा। जावय बीस सहस्सं समचउरस्साणि रम्याणि॥