Book Title: Sramana 2012 10
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 34
________________ लोकानुप्रेक्षा में वास्तुविद्या : 27 85697481 तथा अकृत्रिम चैत्यालय में 9255327948 जिनप्रतिमाएँ अकृत्रिम हैं। इसप्रकार जिन मन्दिरों के निर्माण का समय अनिश्चित है। यदि दूसरे पक्ष से देखा जाए तो कर्मभूमि में सदा षट्काल का परिवर्तन होता रहता है, जो अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल क्रम से प्रवाहित होता है। जिसमें प्रथम काल सुषमा-सुषमा है जिसका काल 4 कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण, द्वितीय काल सुषमा 3 कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण, तृतीय काल सुषमा-दुषमा 2 कोड़ा -कोड़ी सागर प्रमाण, चतुर्थ काल सुषमा-दुषमा 1 कोड़ा-कोड़ी सागर में 42 हजार वर्ष कम प्रमाण, पंचम काल दुषमा 21 हजार वर्ष प्रमाण तथा षष्ठ काल 21 हजार वर्ष प्रमाण है। इन छह कालों में परिवर्तन उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी की तरह उतरते और चढ़ते क्रम से घड़ी की सूइयों की तरह होता है। इन छह कालों में प्रथम तीन काल भोगभूमि के नाम से जाने जाते हैं जिनमें धर्म और धार्मिक जीवों का अभाव होता है, इसमें कर्म भी नहीं किया जाता मात्र भोग किया जाता है, इस कारण इसे भोगभूमि कहते हैं और जहां धर्म और कर्म नहीं होता वहाँ जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर नहीं होते हैं। परन्तु जैसे-जैसे काल का परिवर्तन होता गया वैसे-वैसे भोगभूमि का अभाव होता गया और कर्म भूमि का प्रारम्भ चतुर्थ काल के रूप में हुआ। इस समय धर्म एवं कर्म से अनभिज्ञ लोगों को समझाने के लिए चौदह कुलकरों की उत्पत्ति होती है तथा 14वें कुलकर का पुत्र प्रथम तीर्थंकर होता है। भगवान् के जन्म लेने पर सौधर्म इन्द्र भगवान् की आज्ञा से जिनमन्दिर का निर्माण कराता है।28 यही कर्मभूमि का काल जैनदर्शन के अनुसार मन्दिर निर्माण का प्रारम्भ काल कहलाया। मन्दिर शब्द का अर्थ मन्दिर शब्द का अर्थ संस्कृत में देवालय भी होता है आवास गृह भी परन्तु हिन्दी में वह प्रायः देवालय के अर्थ में ही है। जैन साहित्य में एक शब्द और भी इस अर्थ विशेष रूप में प्रयोग होता है, वह है आयतन जिसका प्रयोग जिनायतन के अन्तर्गत होने लगा और उसके भी बाद मन्दिर, आलय, प्रासाद, गृह आदि शब्दों ने उसका स्थान ले लिया। जिनायतन शब्द के प्रचलन से एक बात सूचित होती है कि मन्दिर में जिन भगवान् का मूर्ति के रूप में निवास होता था। मूर्ति के लिए चैत्य शब्द का भी चलन था, इसीलिए चैत्यालयों में विराजमान जिनबिम्बों को अर्घ देने का विधान भी आज जैन पूजा पाठ का एक अंग है। अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्थ है विजया पर्वत, कुलाचलों आदि पर विद्यमान शाश्वत जिनायतन जिनका निर्माण नहीं किया जाता।

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