Book Title: Sramana 2012 10
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ 10 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 4 / अक्टूबर-दिसम्बर 2012 ज्ञान व ज्ञेय में अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध का अभाव - जैनदर्शन ज्ञान व ज्ञेय में अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध का निषेध करता है, क्योंकि उसकी मान्यता है कि यह आवश्यक नहीं है कि ज्ञेय के होने पर ही ज्ञान हो और ज्ञेय के अभाव में ज्ञान न हो। इसी तरह ज्ञेय जैसा ज्ञान हो यह भी जरूरी नहीं है। आचार्य माणिक्यनन्दी ने इस सन्दर्भ में अपने न्यायग्रंथ "परीक्षामुखसूत्र" में पदार्थ अर्थात् ज्ञेय और प्रकाश ये ज्ञान के कारण हैं, इस सम्बन्ध का निषेध करते हुए युक्ति दी है कि- "पदार्थ और प्रकाश ज्ञान के कारण नहीं, क्योंकि ज्ञान का पदार्थ और प्रकाश के साथ अन्वय व्यतिरेक रूप संबंध का अभाव है। जैसे केश अर्थात् बालों में भ्रम से होने वाले मच्छर ज्ञान के साथ तथा नक्तंचर अर्थात् रात्रि में चलने वाले उल्लू आदि को रात्रि में होने वाले ज्ञान के साथ देखा जाता है अर्थात् किसी पुरुष के उड़ते हुये केशों (बालों) में मच्छर का भ्रम एवं उल्लू को अंधकार में भी दिखाई देना यह बतलाता है कि पदार्थ व प्रकाश ज्ञान के कारण नहीं है।"5 पदार्थ और प्रकाश ज्ञान के विषय हैं, जो विषय होता है, वह पदार्थ को उत्पन्न नहीं करता, बल्कि ज्ञान के द्वारा जाना जाता है। यदि ज्ञेय के कारण ज्ञान हो तो आकाश में गमन करना हुआ हवाई जहाज एवं एयरपोर्ट पर स्थित हवाई जहाज समान दिखाई देना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता। अथवा आकाश में उड़ती हुई पतंग में कबूतर का भ्रम नहीं होना चाहिए। इसी ग्रन्थ में आचार्य ज्ञान की अर्थजन्यता और अर्थकारकता का खण्डन करते हुए कहतें हैं कि पदार्थ से उत्पन्न नहीं होकर भी ज्ञान पदार्थ का प्रकाशक होता है- दीपक के समान। जैस-दीमक पदार्थ को मात्र प्रकाशित करता है, उत्पन्न नहीं करता। कहा भी गया है- "आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, ज्ञेय लोकालोक है इसलिए ज्ञान सर्वगत है- सर्वव्यापक है। आचार्य अमृतचन्द्र प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में कहते हैं कि "आत्मा (ज्ञान) और पदार्थ स्वलक्षणभूत पृथक्त्व (पृथक्-पृथक्) होने के कारण एक दूसरे में नहीं वर्तते, परन्तु उनमें मात्र नेत्र और रूपी पदार्थ की भांति ज्ञान-ज्ञेय स्वभाव सम्बन्ध होने से एक दूसरे में प्रवृत्ति पायी जाती है। जैस-नेत्र और उसके विषयभूत रूपी पदार्थ परस्पर प्रवेश किये बिना ही ज्ञेयाकारों को ग्रहण और समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं उसी प्रकार आत्मा और पदार्थ एक-दूसरे में प्रविष्ट हुए बिना ही समस्त ज्ञेयाकारों के ग्रहण और समर्पण के स्वभाव वाले हैं।' जिस प्रकार आँख रूपवान पदार्थों में प्रवेश नहीं करती और रूपी पदार्थ आँख में प्रवेश नहीं करते तो भी आँख रूपी पदार्थों के ज्ञेयाकारों को जानने के स्वभाव

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102