Book Title: Sramana 2012 10
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 15
________________ 8 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 4 / अक्टूबर-दिसम्बर 2012 लेकिन वे किसी चेतन तत्त्व के कारण भी प्रकाशित नहीं होती हैं। यदि उनमें अन्तर्निहित प्रमेयत्व या ज्ञेयत्व गुण को स्वीकार न किया जाये तो चेतन तत्त्व की विद्यमानता में भी वे प्रकाशित नहीं हो सकती हैं। अतः वस्तुमात्र में ज्ञेय बनने की जो सामर्थ्य है वही उनकी ज्ञानात्मक स्वतंत्रता है। विश्व की समस्त जड़-चेतनात्मक वस्तुयें अपने स्वसामर्थ्य से प्रकाशमान होती हैं या अन्य को प्रकाशित करती हैं, उनकी सत्ता अन्य किसी के ज्ञान पर निर्भर नहीं है। यहाँ पर हम उक्त विषय के सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक विचार करेंगेविश्व में विद्यमान छः द्रव्यों में से एक जीव द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अचेतन अर्थात् अजीव हैं। जीव द्रव्य में पाया जाने वाला 'ज्ञानगुण' उसकी ऐसी विशेषता है जो उसे अन्य द्रव्यों से तथा अपने में ही पाये जाने वाले अन्य गुणों से पृथक् सिद्ध करती है। लोक में भी किसी एक विशेषता की अपेक्षा से किसी व्यक्ति को सम्बोधित करने की पद्धति है जो उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व कर सके, जैसेकिसी व्यक्ति को न्यायाधीश के नाम से सम्बोधित करते हैं। न्यायाधीशत्व उसकी ऐसी विशेषता है जिससे वह सब मनुष्यों से भिन्न पहचाना जाता है, यद्यपि उसमें अन्य सामान्य मनुष्यों जैसी व्यक्तिगत अपनी अनेक विशेषतायें भी हैं वह केवल न्यायाधीश ही नहीं है, किन्तु न्यायाधीश संज्ञा में उसका सम्पूर्ण सामान्य-विशेष व्यक्तित्व गर्भित हो जाता है अर्थात् वह व्यक्ति जितना कुछ है वह सब न्यायाधीशत्व में समाविष्ट है। इसी प्रकार ज्ञान आत्मा (जीव) के अनंत गुण धर्मों के समान यद्यपि जीव का एक गुण विशेष ही है, किन्तु उसके बिना जीव को पहचाना ही नहीं जा सकता। ज्ञान का व्यापार प्रगट अनुभव में आता है। ज्ञान न केवल आत्मा वरन् जगत् के अस्तित्व की सिद्धि करता है। ज्ञान ही आत्मा का सर्वस्व है उसके बिना विश्व में आत्मसंज्ञक किसी चेतन तत्त्व की कल्पना ही व्यर्थ है, इसी कारण आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में आत्मा को 'ज्ञान मात्र' ही कहा है। ज्ञान का स्वरूप -ज्ञान का स्वभाव वस्तु का सर्वांग प्रतिभासन करना है. क्योंकि स्वभाव असहाय, अकृत्रिम एवं निरपेक्ष होता है। ज्ञान भी जगत् से पूर्ण निरपेक्ष एवं असहाय रहकर अपने जानने का व्यापार करता रहता है, अपने जानने के कार्य के संपादन हेतु उसे जगत् से कुछ भी आदान-प्रदान नहीं करना पडता है। ज्ञान का स्वभाव दर्पणवत है जिस प्रकार कि दर्पण अपने स्वच्छ स्वभाव से वस्तुओं को प्रतिबिम्बित करता है। दर्पण में वस्तुओं के अनेक आकार-प्रकार

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