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५८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ हैं। उधर हाथी कुमार को एक तालाब में गिरा देता है। वहाँ एक तपस्वी के दर्शन होते हैं। तपस्वी अपने आश्रम में ले जाता है। रत्नचूड और तिलक सुन्दरी का विवाह सम्पन्न होता है।
(३) अन्य राजकुमारियों से विवाह एवं राज्य प्राप्ति - तिलक सुन्दरी को मदनकेशरी विद्याधर अपहरण कर लेता है। रयणचूड सुन्दरी को खोजता हुआ निर्जन रिष्टपुर नगर पहुंचता है। जहाँ वानरी के रूप में सुरानन्द मिलती है। रयणचूड विद्या द्वारा उसका उद्धार कर विवाह कर लेता है। बाद में सूर्यप्रभ मुनि द्वारा मुनि के पूर्व जन्म की कथा सुनता है जिसमें समस्या पूर्ति द्वारा राजहंसी से विवाह करता है। इस प्रकार तिलकसुंदरी, सुरानन्दा, राजश्री, पद्मश्री एवं राजहंसी से विवाह कर लेता है। पांचों पत्नियों के सुख को भोगता हुआ सपरिवार तीर्थ यात्रा करने की सोचता है।
- (४) सपरिवार तीर्थयात्रा और धर्मोपदेश - रत्नचूड पांचों पत्नियों एवं माता-पिता के साथ मेरु पर्वत पर जिनेन्द्र के दर्शन करने गया। वहां सुरप्रभ मुनि के - धर्मोपदेश सुना। उन्होंने दान के दृष्टान्त के रूप में राजश्री का पूर्वभव, शील के दृष्टान्त में पद्मश्री का पूर्वभव, तप धर्म के दृष्टान्त में राजहंसी का पूर्वभव, भावना धर्म के दृष्टान्त में सुरानन्दा के पूर्वभव की कथा सुनायी। अन्त में रत्नचूड और तिलकसुन्दरी का पूर्वभव भी सुनाया। सभी लोगों की धर्म में दृढ़ आस्था हो गई।
(५) दुश्चेष्टा के परिणाम-कथन के रूप में अमरदत्त और मित्रानंद की कथा - सुरप्रभ मुनि से तिलकसुंदरी ने रत्नचूड के वियोग का कारण पूछा तब मुनि ने कहा पूर्वजन्म में तिलक सुन्दरी ने क्रीड़ा करते हुए कबूतर को यह कहकर उड़ा दिया कि वह कभी न मिले। ऐसी दुश्चेष्टा के कारण वियोग हुआ। ऐसी ही एक कथा अमरदत्त और मित्रानंद की सुनाता है। रत्नचूड आदि सभी श्रावक दीक्षा स्वीकार करते हैं।
(६) रत्नचूड द्वारा धार्मिक अनुष्ठान एवं क्रमशः मोक्ष प्राप्ति - रत्नचूड .. ने धार्मिक जीवन जीते हुए अनेक धार्मिक अनुष्ठान किये। मन्दिरों का निर्माण करवाया। पूजा, दान आदि कार्य किये और केवल ज्ञान प्राप्त किया।
प्राचीन साहित्य में किसी भी कथा-नायक की मूल कथा के साथ अन्य अवान्तर-कथाएं प्रस्तुत करने की एक लम्बी परम्परा है। मूल कथा के साथ अवान्तरकथाओं को देने के पीछे ग्रन्थकार का यह आशय रहता है कि पाठक मूल कथा के अन्त को धीरे-धीरे पहुंचे तथा अवान्तर-कथाओं के माध्यम से उसका मनोरंजन होता चले। चरित-ग्रन्थों में अवान्तर-कथाएं चरित-नायक के विभिन्न गुणों को विकसित करने में सहायक होती हैं। अवान्तर-कथाओं से मूल कथा के प्रति पाठक का कुतूहल
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