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९२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५
आगम आचार-संहिता के अनुरूप ग्रामानुग्राम विचरण कर जीवन निर्माण व आत्मोत्कर्ष हेतु नैतिक आचार-विचार युक्त आध्यात्मिक गंगा-यमुना जन मानस के अन्तर में बहाई । "सवि जीव करूं शासन रसि ऐसी भाव दया मन उल्लसी" के भावों से धर्म-ध्वजा फहराते हुए उत्तरोत्तर निज चरित्र की निर्मलता हेतु जिन तीर्थों की यात्रा कर भव यात्रा का परिच्छेद किया। जिन प्रतिमा व अतिशय मंडित तीर्थों के प्रति अगाध श्रद्धा का वेग सदैव उमड़ता रहता था। भारत के विविध अंचलों को पद्कमलों से पवित्र करते हुए मूर्ति पूजा विरोधियों की गतिविधियों का उन्मूलन कर "जिन प्रतिमा जिन सारखी" का अभियान बुलंद किया।
आपने शाश्वत तीर्थाधिराज शत्रुंजय की अनेकों बार यात्रा कर आभ्यन्तर शत्रु को परास्त करने का आत्म सम्बल प्राप्त किया। अनेक बार छ:, रि पालित संघ निकलवाए | मूर्ति विरोध के निमित्त से खण्डहर बन रहे अनेक जिन मन्दिरों का जिर्णोद्धार और नवीनीकरण कराया। नयनाभिराम सैकड़ों जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका व प्राण प्रतिष्ठा करवाई ।
जे जिन बिंब स्वरूप न जाणे, ते कहिये किम जागे । भूला तेह अज्ञाने भरिया, नहीं तिहां तत्त्व पिछाणे रे ।।
इन भावों से अहमदाबाद में जोधपुर के श्री रतनसिंह भंडारी सूबेदार जी को व अहमदाबाद के तत्त्वज्ञ सेठ शाह आनंदराम जी को जिन प्रतिमा का माहात्म्य ज्ञात कराकर अपूर्व शासन प्रभावना करवाई। एक दिन जिन मन्दिर में उपा० साधु कीर्ति द्वारा सत्तर भेदी पूजा चल रही थी, तेरहवीं अष्ट मंगल पूजा के अन्त में भाव-विभोर हृदय से "आणंद कल्याण सुख रस में" जैसे शब्द भंगिया में भक्तों को आनंद के महासागर में तल्लीन कर दिया। देवचन्द्र जी ने शत्रुंजय तीर्थ के समुचित प्रबन्ध हेतु सुव्यवस्थित समृद्धशाली संस्था के निर्माण हेतु परम गुरु भक्त रतन सिंह जी भंडारी को कहा परमात्म भक्ति के रस से ग्रसित मन ने उसी क्षण गुरु वचनों को तहत्ति किया - संस्था का नामकरण "आनन्द जी कल्याण जी कारखाना" रखा गया । ओजस्वी महापुरुष के द्वारा स्थापित पेढ़ी के वट वृक्ष की जड़ें आज इतनी गहरी हो गईं हैं कि वह देश की सर्वाधिक धनाढ्य, कार्यदक्ष नेतृत्व संपन्न समिति के रूप में जैन संस्कृति - संस्कारों की आन-बान-शान में चार चांद लगाए हुए है।
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बहुआयामी, बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्य स्रष्टा ने जिनवाणी के गूढ़ रहस्यों को अनेकान्तवाद शैली द्वारा सहज सरल सुबोध भाषा में गद्य-पद्य का रूप देकर जनभोग्य बनाया। जिन चौबीसी, व विहरमान जिनवीसी, अनेकानेक सज्झायों को आत्मनिष्ठा एवं तत्त्वमीमांसा से अनुगुंजित किया और मर्मस्पर्शी रचनाओं को इतना
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