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प्रसरत्-प्रवर-रत्नोरु-दिप्ति-विच्छुरित नभ-तलाऽऽभोगा ।
उत्तर दिशा-प्रवृत्ताः सुर-सुन्दरि गेय-शोभिता ।।३२।। अर्थ :- त्यां प्रारम्भ करेली विविध क्रीडा करतो जेटलीवारमा व्यां रहया तेटली-वारमा गगनमा दिव्य विमानोनी पंक्तिने जोई। हिन्दी अनुवाद :- वहाँ विविध क्रीडाओं में मस्त मैंने कुछ ही क्षणों में गगन में दिव्य विमानों की पंक्ति देखी। विस्तृत श्रेष्ठ रत्नों के तेज से देदीप्यमान आकाश की उत्तरदिशा को सुरसुन्दरियाँ अपने गीतों से सुशोभित कर रही थीं। गाहा :
तं दट्ट मए भणियं कत्थ इमो हंदि ! देव-संदोहो ।
चलिओ चलंत-कुंडल-मुत्ताहल-धवल-गंड- यलो? ।।३३।। छाया :
तं दृष्ट्वा मया भणितं कुत्र अयं हंदि ! देव-संदोहः।
चलितः चलत्-कुण्डल-मुक्ताफल-धवल गंड-तलः ?|| अर्थ :- फेलायेला श्रेष्ठ विशाळ रत्नोना तेजथी व्याप्त आकाशनी उत्तरदिशाने सुरसुन्दरीओ गीतोथी शोभावती हती। ते जोईने में कहयु झूलताकुंडलवाळो मोतीओथी सफेद मस्तकवाळो शु देवताई समूह क्या चाली रहयो छे ? (एवु लागतु हतु !) हिन्दी अनुवाद :- यह देखकर मुझे लगा की सफेद मोतीमय लटकते कुंडलवाला क्या यह देवताओं का समूह चल रहा है? गाहा :- सिद्धायतनमा देव वगेरेनु आगमन
ईसि हसिऊण भणियं मज्झ वयंसेण बंधुदत्तेण । सुपसिद्धमेव एवं वेयड्ढ- नगे वसंताणं ।।३४।।
छाया:
ईसत् हसित्वा भणितं मह्यं वयस्येन बंधुदत्तेन ।
सुप्रसिद्धमेव एतत् वैताढ्य-नगे वसंतानाम् ||३४|| अर्थ :- थोडु हसिने मारा मित्र बंधुदत्ते कह्यु-वैताढ्य-पर्वतमा रहेता सुप्रसिद्ध एवा..... हिन्दी अनुवाद :- थोड़ा हँसकर मेरे मित्र बंधुदत्त ने मुझसे कहा - यह अत्यंत प्रसिद्ध ही है - वैताढ्य पर्वत पर सिद्धायतनों में रहते जिनेश्वरों को - गाहा :
जिणवंदणत्थमेत्थं सिद्धाययणेसु एइ सुर-निवहो । निच्चपि वयंस ! अओ पसिद्ध-वत्थुम्मि का पुच्छा? ।।३५।।
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