________________
श्रमण, वर्ष ५६, अंक १.६
जनवरी-जून २००५
आचार्य नेमिचन्द्रसूरि कृत रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन
डॉ० हकमचंद जैन*
आचार्य नेमिचन्द्र सूरि अपर नाम देवेन्द्र गणि चन्द्रकुल के बृहद्गच्छीय उद्योतनसूरि के प्रशिष्य एवं आम्रदेवसूरि के शिष्य थे। ये गुजरात के राजा कर्ण के समकालीन होने के कारण ११वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं १२वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के माने जाते हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में की है। ये रचनाएँ गद्यपद्य एवं चम्पू शैली में है।
रचनाएं - (१) महावीर चरियं (२) उत्तराध्ययन वृत्ति (उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका) (३) आख्यानक मणिकोश (४) आत्मबोध कुलक एवं (५) रयणचूडरायचरियं आपकी प्रमुख रचनायें हैं। ये रचनाएं अणहिल्लपाटपुर में श्री कर्ण राजा के राज्य में दो हट्ठी (श्रेष्ठी) के द्वारा वि०सं० ११४१ में रची गईं। रयणचूडरायचरियं भाषा एवं ग्रन्थ के आन्तरिक अध्ययन से ज्ञात होता है कि कवि की तृतीय कृति चम्पू शैली में रचित है। यह एक धर्मकथा है जिसमें दान, शील, तप एवं भावना सम्बन्धी अवान्तर कथाओं के सहारे मूल कथा आगे बढ़ती है।
कथा-वस्तु - यह कथा छः खण्डों में विभाजित है - ___ . (१) रत्नचूड का पूर्व भव - गौतम स्वामी राजा श्रेणिक को धर्म प्रतिपादन के रूप में रत्नचूड की कथा सुनाते हैं। कंचनपुर नगर में बकुल माली था। जिनेन्द्र पूजा के कारण वह मृत्यु को प्राप्त कर राजा कमलसेन एवं रानी रत्नमाला के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ क्योंकि रानी ने गर्भ के समय रत्न के ढेले के दर्शन किये इसलिए रयणचूड नाम रखा गया।
(२) रत्नचूड का जन्म और तिलक सुन्दरी से विवाह - एक बार रत्नचूड को हाथी अपहरण कर लेता है। राजा-रानी बहुत विलाप करते हैं। सुरगुरू नामक नैमित्तिक द्वारा कुमार को वापस आने की बात कहकर राजा-रानी आश्वस्त होते * सह आंचार्य एवं पूर्व विभागाध्यक्ष, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org