Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ जैन दर्शन का मानववादी दृष्टिकोण के रूप में उसके मूल्य, लोगों के मंगल-कल्याण, उनके चहुमुखी विकास, मनुष्य के लिए सामाजिक जीवन की परिस्थितियों के निर्माण के लिए चिन्ता आदि को अभिव्यक्त करने वाले विचारों की समग्रता ही मानववाद का लक्ष्य है। वस्तुत: मानव-स्वतंत्रता ही मानववाद है। जैसा कि जे० मैक्यूरी ने कहा है- मनुष्य के ऊपर किसी भी उच्चतर सत्ता का अस्तित्व नहीं देखा जाता है, इसलिए मनुष्य आवश्यक रूप से अपने मूल्यों की सृष्टि करता है, अपना मापदंड एवं लक्ष्य बनाता है, अपने मोक्ष के लिए कार्यक्रम बनाता है। मनुष्य की अपनी शक्ति एवं बुद्धि से परे कुछ भी नहीं है, इसलिए अपनी सहायता के लिए अपने से बाहर नहीं देख सकता, इसी रूप में उसे अपने या समाज के बाहर किसी भी निर्णय के प्रति समर्पण करने की आवश्यकता नहीं है। अत: मानव-स्वतंत्रता मानववाद का आधार है, क्योंकि ईश्वर या ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करने पर मानव सुखी नहीं रह सकता। इतना ही नहीं ईश्वर या ईश्वर में विश्वास मनुष्य के उत्तरदायित्व को भी समाप्त कर देता है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य ही अपने मूल्यों का निर्धारण करता है। कैपलेस्टन ने अपनी पुस्तक में लिखा है- मनुष्य का सर्वप्रथम अस्तित्व देखा जाता है और तभी वह अपने को परिभाषित करता है। वह अपनी स्वतंत्र इच्छाओं द्वारा स्वयं को निर्मित करता है। वह सिर्फ उसी के लिए उत्तरदायी होता है जिसका निर्माण वह स्वयं करता है। मनुष्य मूल्यों का स्रष्टा भी है और द्रष्टा भी है। निरपेक्ष मूल्यों का कोई अस्तित्व नहीं है। सार्वभौम और आवश्यक नैतिक नियम का भी कोई अस्तित्व नहीं है। मनुष्य अपने मूल्य का चयन स्वयं करता है। उपर्युक्त मानववादी-दार्शनिक परम्परा में जैन दर्शन का भी नाम आता है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शन में एक जैन दर्शन ही है जो पूर्ण मानव-स्वतंत्रता की बात करता है। यह वह दर्शन है जो मानव-कल्याण, मानव की कर्तव्य परायणता, मानव-समता, मानव की महत्ता, उसकी चारित्रिक शुद्धि, सर्वमंगल की भावना, अहिंसक-प्रवृति, सुदृढ़ एवं स्वच्छ आर्थिक व्यवस्था, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं नैतिक मूल्य, विश्वबन्धुत्व की भावना तथा ईश्वर का मानवीकरण आदि मानववादी चिन्तनों को अपने में समेटे हुए है। किन्तु जैन दर्शन के मानववादी दृष्टिकोण को समझने से पूर्व 'मानववाद' और 'मानवतावाद' के अंतर को समझ लेना आवश्यक है, क्योंकि समान्यतया दोनों को एक मान लिया जाता है। जैसा कि प्रो० सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक "जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन" में 'मानवतावादी सिद्धान्त और जैन आचार दर्शन' शीर्षक के अन्तर्गत पाश्चात्य मानववादी सिद्धान्त से तुलना करते हुए जैन दर्शन के शुद्ध मानववादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है, किन्तु 'मानववाद' की जगह पर उन्होंने मानवतावाद शब्द का प्रयोग किया है। डॉ० सुरेन्द्र वर्मा ने भी अपने लेख का शीर्षक "नैतिकता में मानवतावादी दृष्टिकोण' दिया है, जिसके अन्तर्गत उन्होंने आधार स्वरूप मानववादी दृष्टिकोण की व्याख्या की है, किन्तु उनके प्रस्तुतीकरण

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