Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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जैन दर्शन और कबीर: एक तुलनात्मक अध्ययन ३५ के प्रतिपादन में केवल परमात्मभक्ति की ही बात रखी है, गुरुभक्ति की नहीं, तो फिर कबीर ने इनसे गुरुभक्ति नहीं सीखी यह तथ्य सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट है।
तीसरा यह कि जैन धर्म में परमात्मभक्ति के साथ गुरुभक्ति और श्रुतभक्ति भी आवश्यक मानी गयी है और तीनों के आधार पर जीवन के सम्पूर्ण विकास को मान्यता प्रदान की गयी है।१७
जैनधर्म में तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करने वाले २० गुण माने गये हैंअरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरू-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसु। वच्छलयायतेसिं, अमिक्ख णाणोवओगे या। दंसण-विणए आवस्सए य, सील बए निरइयारं। रवण-लव-तवच्चियाए, वेयावच्चे समाहीया। अपुव्यनाण गहणे, सुयभक्ति पवयणे प भावणया। एएहिं कारणेहिं तिथ्थयरतं लहइ जीवो।।-ज्ञाता०, अ ८,
उक्त २० गुणों में से अरिहंत-सिद्ध-प्रवचन-गुरु आदि के प्रति भक्ति अर्थ में 'वत्सलता' (वात्सल्य) शब्द का प्रयोग जैन दर्शन का अपना अनूठा प्रयोग है। यहाँ 'वात्सल्य' का अर्थ है- निस्वार्थ स्नेह या शुद्ध प्रेम अथवा अलौकिक अनुराग।
श्री सोमदेवसूरि के अनुसार 'वात्सल्य' का लक्षण है'आर्थित्वं भक्ति संपत्तिः प्रियोक्तिः सत्क्रियाविधिः। सधर्मसु च सौचित्य कृतिर्वत्सलता मता।।१८
अर्थात् धर्मात्मा पुरुषों के प्रति उदार रहना,उनकी भक्ति करना, मिष्ट वचन बोलना, आदर-सत्कार तथा अन्य उचित क्रियाएँ करना 'वात्सल्य' है। तात्पर्य यह है कि 'वात्सल्य' में समर्पण एवं प्रपत्ति का भाव अन्तर्निहित है।
जैनदर्शन में मोक्षमार्ग है- सम्यक-दर्शन-ज्ञान-चरित्र की परिपूर्णता एवं एकरूपता। जैन भक्त सुदेव अर्थात् वीतराग जिन परमात्मा की भक्ति करके अपने सम्यग्दर्शन गुण को पूर्ण विकसित करना चाहता है। सत्श्रुत की भक्ति करके अपने सम्यग्ज्ञान गुण को एवं सुगुरु की भक्ति करके अपने सम्यक्-चारित्र गुण को परिपूर्णता प्रदान करना चाहता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैनधर्म में भक्ति-रस-सूत्र से अनुस्यूत ज्ञानदर्शन-चारित्र को ही मोक्षमार्ग माना गया है।
कबीर की भक्ति पर नारदीय, द्राविड़ीय, वैष्णवीय और पंचरात्रीय आदि अनेकों प्रभाव अनेकों विद्वानों द्वारा मान्य किए गए हैं। हम यह नहीं कहना चाहते कि कबीर