Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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४० श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ प्रत्येक क्षेत्र में जब जो भाषा प्रचलित थी, जैनों ने उसी के माध्यम से अपना प्रचार किया है। इसी प्रकार कबीर ने भी अपने उपदेशों का माध्यम लोकभाषा को बनाया है। जैन साधुओं की घुमक्कड़ी वृत्ति का भी उन पर प्रभाव पड़ा है, इसीलिए वे दूर-दूर तक पैदल भ्रमण कर सके और उनकी भाषा 'सधुक्कड़ी भाषा' की संज्ञा प्राप्त कर सकी।
जैन दर्शन और कबीर के शब्द-साम्य और भाव-साम्य के कुछ उदाहरण(१) -
वंदहु वंदहु जिणु भणइ, को वंदउ हलि इत्थु। णियदेहाहं वसंतयह जइ जाणिउ परमथ्थु।। मुनि रामसिंह, पाहुड दोहा, ४१. अर्थात् जिन कहते हैं- वंदना करो, वंदना करो। किन्तु यदि निजदेह में अवस्थित आत्मतत्त्व ही परमार्थतः परमात्मा है, यह मैंने जान लिया है, तो मैं किसे वंदना करूं? मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहि। अब मन रामहिं है रह्मा,सीस नवावौं काहि।
कबीर-ग्रन्थावली (मिश्र), सा० ८, पृ०- १४. (२) जं कल्लं कायव्वं, नरेण्ण अज्जेव तं वरं काउं।
मच्चू अकलुणहिअओ, न हु दीसइ आवयंतो वि।। -बृहत्कल्पभाष्य,४६७४. काल करे सो आज कर,आज करे सो अब। पल में परलै होयगी बहुरि करेगा कब।। कबीर-ग्रन्थावली, सा० ४०२, पृ०- ४१. आउ गलइ णावि मणु गलइ णवि आसा हु गलेइ। मोह फुरइ णवि अप्प-हिउ इय संसार भमेइ।। योगसार, दोहा ४९, पृ-३७०. माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर। आसा त्रिष्णा नाँ मुई, यौं कहि गया कबीर।। कबीर-ग्रन्थावली, (मिश्र), सा० ११, पृ०-९२. जइ जर-मरण करालियउ तो जिय धम्म करेहि। धम्म-रसायणु पियहि तुहुँ जिम अजरामर होहि।। -योगसार, ४६, पृ०-३६९.
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