Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 129
________________ १२८ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ मूर्धन्य विद्वान् आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि का नाम जैन वाङ्मय में चिरस्थायी है। विभिन्न शास्त्रों का गहन अध्ययन होने के साथ ही साथ उन्हें उच्चकोटि का आध्यात्मिक ज्ञान भी था। सम्भवत: यही कारण रहा हो कि उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा संस्कृत में प्रथम बार 'समाधि तंत्र' या 'समाधि शतक' जैसी श्रेष्ठ आध्यात्मिक रचना भी रची। अध्यात्मरस में निमग्न आचार्य पूज्यपाद कहते हैं देहे स्वबुद्धिरात्मानं युनक्त्येतेन निश्चयात। स्वात्मन्येवात्मधीस्तस्माद् वियोजयति देहिनम्।। अर्थात्, इस देह में व अन्य पर वस्तु में और भावों में आत्मा की बुद्धि रखनेवाला बहिरात्मा अपनी आत्मा को इस शरीर से या पुद्गल कर्मरूप से बन्धन में डाल देता है किन्तु अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप में आत्मबुद्धि रखनेवाला आत्मज्ञानी अपनी आत्मा को निश्चय ही देह से या पुद्गल कर्मबन्ध से छुड़ा लेता है। आचार्य की विशेषता यही थी कि उन्होंने अपने लेखन एवं उद्बोधन द्वारा सदैव ही समाज को मोक्षमार्ग में अग्रसर होने का उपदेश दिया। आज भी उनके उपदेशों का और उनकी दिनचर्या का जो भी साधक स्मरण और अनुकरण करेगा, वह मानव इस भव से सहज ही मुक्ति प्राप्त करेगा। पुस्तक का मुद्रण कार्य निर्दोष एवं बाह्यावरण आकर्षक है। पुस्तक उपदेशों से पूर्ण होने के कारण संग्रहणीय है। डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी तत्त्वार्थाधिगमसत्रम् (स्वोपज्ञभाष्यसमेतम), ग्रन्थकार- उमास्वाति सम्पादक प्रशमितरतिविजय प्रकाशक- रत्नत्रयी आराधक संघ नवसारिका, रमणलालछगनलाल आराधना भवन, शान्तिदेवी रोड, नवसारी, पृष्ठ संख्या- १९९, मूल्य ८० रुपये। जैन दर्शन में 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' का महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसके रचयिता आचार्य उमास्वाति हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका में उमास्वाति के जन्मादि की तिथियां सम्पादक के अनुसार इस प्रकार हैं- भगवतो जन्म श्री वीर निर्वाणाद ७१४ तमेऽब्दे (१८७ ईस्वी), दीक्षा ७३३ तमेऽब्दे (२०७ ईस्वी)। सूरिपदवी ७५८ तमेऽब्दे (२३१ ईस्वी), निर्वाणञ्च ७९८ तमेऽब्दे (२७१ ईस्वी)। उमास्वाति सभी जैन सम्प्रदायों में मान्य एवं आदरास्पद रहे हैं। दिगम्बर परम्परा उन्हें उमास्वाति तथा उमास्वामी दोनों नामों से जानती है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में वे केवल उमास्वाति नाम से ही प्रसिद्ध हैं। तत्त्वार्थसूत्र के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए स्वयं उमास्वाति का कहना है यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम्।

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