Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 132
________________ जैन जगत् १३१ अनुवाद की भाषा सहज व प्रभावोत्पादक है जिससे पाठक एक बार पढ़कर ही विषय को ग्रहण कर लेता है। यह ग्रन्थ अनुसंधानकर्ताओं के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगा क्योंकि इसमें प्रत्येक सूत्र मूल प्राकृत में दिया हुआ है। प्रत्येक सूत्र का रोमन लिपि में लिप्यन्तरण देने से पुस्तक की उपयोगिता बढ़ गई है। पुस्तक के अंत में गाथानुक्रमणिका, सन्दर्भ ग्रन्थों की सूची, पारिभाषिक शब्दावली व उनके अर्थ आदि दिये हुए हैं। भक्ति वगर मुक्ति नथी, प्रवक्ता- मुनि मुक्तिरत्नसागर जी प्रकाशक- श्री अक्षय प्रकाशन, श्री रमणीक लाल सलोत, २०४, श्रीपाल नगर, १२ हार्कनेस रोड, बालेश्वर, मुंबई-६, १९९७, आकार-डिमाई, पेपर बैक, पृ०- १६८, मूल्य- ४० रुपये। ___ यह सर्वविदित है कि भक्ति ही मुक्ति का एक सरल और सहज उपाय है जो सभी के लिये सुलभ है। जो मानव कठिन तप, साधना आदि करने में असमर्थ हैं उन सभी के लिये भक्ति ही एक सरलतम उपाय है जिसके माध्यम से वे मोक्ष को अनायास ही प्राप्त कर सकते हैं। सम्भवत: इसी तथ्य को ध्यान में रखकर महर्षि पतञ्जलि ने 'यमनियमादि' अष्टांग के अतिरिक्त 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा' नामक सूत्र की भी रचना की और इसी तथ्य को ध्यान में रखकर मुनि श्री मुक्तिसागर जी म०सा० के 'रत्नाकर पच्चीसी' पर दिये गये प्रवचनों को 'भक्ति वगर मुक्ति नथी' नामक पुस्तक में संगृहीत किया गया है। अपने व्याख्यानों को आकर्षक बनाने के लिये म०सा० ने विविध दृष्टान्तों, पदों और उर्दू शायरियों को इसमें समाहित किया है। मुमुक्षुओं के लिये पुस्तक उपयोगी है। पुस्तक का आवरण आकर्षक एवं मुद्रण कार्य निर्दोष है। डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी पञ्चशती, लेखक-आचार्य विद्यासागर, संस्कृत टीका एवं हिन्दी रूपान्तरणडॉ० पं० पन्नालाल साहित्याचार्य प्रकाशक-ज्ञानगंगा, ३०, डिप्टीगंज, सदरबाजार, दिल्ली-६, प्रथमावृत्ति-फरवरी १९९१, आकार-डिमाई, पेपर बैक, पृ०- ३५१, मूल्य- स्वाध्याय। _ 'काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्' वाली कहावत को चरितार्थ करने वाले विद्वान् पूज्यवर आचार्य विद्यासागर जी महाराज काव्यशात्र या आगम साहित्यादि का अध्ययन मात्र कालयापन के उद्देश्य से नहीं करते बल्कि वे उसके तत्त्व को आत्मसात् कर समाज को भी इसी राह पर चलने की प्रेरणा देने के लिए करते हैं। ऐसे महान् सन्त द्वारा विरचित 'पंञ्चशती' जो श्रमणशतक, निरंजनशतक, भावनाशतक, परीषहजयशतक (ज्ञानोदय) और सुनीतिशतक का संग्रह है, एक ऐसा संग्रहकाव्य है जिससे उनके पाण्डित्य का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

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