Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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१३२ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८
श्रमणशतक
आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वनिर्मित प्रवचनसार के चारित्र नामक अधिकार में- जो हर परिस्थिति में समत्व को धारण करता है वही श्रमण है- इस प्रकार की जो बात कही है उसी को आधार बनाकर आचार्य विद्यासागर जी ने उक्त शतक की रचना की है। इसके मूल में आर्या एवं पद्यानुवाद में वसन्ततिलका छन्द का प्रयोग हुआ है। निरंजनशतक
वस्तुत: जो आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव वाला है किन्तु कषायों के संयोग से कलुषित हो रहा है ऐसी विशुद्ध आत्मा पर पड़े कषायरूपी आवरणों को रत्नत्रय की साधना से जिन साधकों ने दूर कर दिया है और जो अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव में लीन हो चुके हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी निरंजन कहलाते हैं। प्रस्तुत शतक में इन्हीं की स्तुति की गयी है। इस शतक के मूल में द्रुतविलम्बित और हिन्दी में वसन्ततिलका छन्द का प्रयोग हुआ है।
भावनाशतक- इस शतक में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध करने में कारणभूत दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं के लिये जिन शब्दों का प्रयोग प्रारम्भ से होता
आ रहा था उन शब्दों के स्थान पर नये-नये शब्दों का प्रयोग किया गया है यथादर्शनविशुिद्ध, निर्मलदृष्टि, विनयसम्पन्नता, विनयावनति, शीलव्रतेष्वनतिचार, सुशीलता आदि।
प्रस्तुत शतक में प्रत्येक भावना के पश्चात् मुरजबन्ध लिखा है। सामान्यत: मुरजबन्ध कई प्रकार का होता है किन्तु यहाँ सामान्य मुरजबन्ध का प्रयोग ही किया गया है। महाकवि अजितसेन विरचित अलंकारचिन्तामणि में मुरजबन्ध लिखने की विधि इस प्रकार बतलायी है
पूर्वार्धमूर्ध्वं पङ्कतौ तु लिखित्वाऽर्द्धं परं त्वतः। एकान्तरितमूर्ध्वाधो मुरजं निगदेत् कविः।।२/१४९।।
अर्थात् ऊपर की पंक्ति में पूर्वार्ध पद्य को लिखकर नीचे उत्तरार्ध को लिखें। एक-एक अक्षर से व्यवहित ऊपर और नीचे लिखने से मरजबन्ध की रचना होती है। इस वृत्त का प्रयोग इस शतक के १०, १६, २२, २८, ३४, ४० आदि श्लोकों में हुआ है। इस शतक में मुरजबन्ध में अनुष्टुप और शेष पद्यों में आर्या छन्द का प्रयोग किया गया है।
परीषहजयशतक- ज्ञातव्य है कि क्षुधादि बाईस परीषहों पर विजय प्राप्त किये बिना मुनि पद का निर्बोध निर्वाह नहीं होता अतएव आचार्य ने इस शतक के माध्यम