Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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खरतरगच्छ-पिप्पलकशाखा का इतिहास
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क्र० वि०सं० तिथि/मिति | लेख का प्रकार
प्राप्तिस्थान
संदर्भ ग्रन्थ
का लेख
१३.|१४७३ | ज्येष्ठ सुदि४ | चौबीसी जिन प्रतिमा | आदिनाथ जिनालय, | प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक११२
| देलवाड़ा, उदयपुर १४. |१४७५ | ज्येष्ठ सुदि७ | पार्श्वनाथ की | पार्श्वनाथ जिनालय, | वही, लेखांक ११५
गुरुवार प्रतिमा का लेख | देलवाड़ा, उदयपुर १५.१४७८ | तिथिविहीन अम्बिका की प्रतिमा | सुपार्श्वनाथ जिनालय, अगरचंद भंवरलाल नाहटा,
का लेख
नाहटों की गुवाड़, | संपा०, बीकानेरजैनलेखसंग्रह, बीकानेर
लेखांक १७६९
वि० सं० १४६९ के एक प्रतिमालेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में खरतरगच्छीय जिनचन्द्रसूरि का नाम मिलता है। चूंकि इस समय खरतरगच्छ की पिप्पलकशाखा को छोड़कर किन्ही अन्य शाखाओं में इस नाम के कोई आचार्य या मुनि नहीं हुए हैं, अत: उक्त प्रतिमा के प्रतिष्ठापक जिनचन्द्रसूरि पिप्पलक शाखा के प्रवर्तक जिनवर्धनसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि से अभिन्न माने जा सकते हैं। महो० विनयसागर का मत है कि सम्भवत: उक्त जिनचन्द्रसूरि खरतरगच्छ की लघु शाखा से सम्बद्ध रहे हों। इनके द्वारा वि० सं० १४८६ में प्रतिष्ठापित तीन प्रतिमायें भी मिली हैं, इनमें से एक प्रतिमा महावीर की और दूसरी जिनवर्धनसूरि की है। महावीर की प्रतिमा पर प्रतिमाप्रतिष्ठापक जिनचन्द्रसूरि के गुरु जिनवर्धनसूरि का भी नाम मिलता है।
पिप्पलकशाखा के ही मुनि आज्ञासुन्दर ने वि० सं० १४९५/ई० सन् १४३९ में स्वलिखित बप्पभट्टिसूरिआमनृपतिचरित की प्रतिलिपि की प्रशस्ति में स्वयं को जिनवर्धनसूरि का शिष्य बतलाया है।११ वि० सं० १५१६/ई०स० १४६० में उन्होंने विद्याविलासचौपाई नामक कृति की रचना की।१२ इस प्रकार जिनवर्धनसरि के दो शिष्यों-जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम' और आज्ञासुंदर के बारे में जानकारी प्राप्त हो जाती है। इनमें से जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम' उनके पट्टधर हुए।
जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम' के दो शिष्यों जिनसागर (आचार्य पद वि० सं० १४९० वैशाख वदि १२) और जिनसमुद्र के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। वि० सं० १४९१ से वि० सं० १५२० तक के कुल २१ प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में इनका नाम मिलता है।१३ वि० सं० १४९४/ई० सन् १४३८ का एक लेख जो, एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है, में इनके कुछ शिष्यों का भी उल्लेख मिलता है। मुनि जयन्तविजय१४ ने इस लेख की वाचना निम्नानुसार दी है:
संवत् १४९४ वर्षे पौष सुदि २ रवौ। श्री खरतरगच्छे श्री पूज्य श्रीजिनसागरसूरि गच्छनायकसमादेशेन निरंतरं श्री विवेकहंसोपाध्याया: पं० लक्ष्मीसागरगणि जयकीर्तिमुनि रत्नलाभमुनि देवसमुद्रक्षुल्लक धर्मसमुद्रक्षुल्लक प्रमुखसाधुसहाया (:)।। तथा भावमतिगणि