Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्द
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अर्थात् जिसमें क्रमशः यगण, मगण, नगण, सगण, और भगण, अन्त में क्रमश: एक लघु और एक गुरु हो तो उस छन्द को शिखरिणी कहते हैं- उदाहरण २३
पुरस्कृत्य न्यायं खलजनमनादृत्य सहजा
नरीन् निर्जित्य श्रीपतिचरितमाश्रित्य च यदि। समुद्धर्तुं धात्रीमभिलषसि तत् सैष शिरसा
धृतो देवादेशः स्फुटमपरथा स्वस्ति भवते ॥ ७७ ॥
चतुर्थ सर्ग दूतसमागम में ९१ श्लोक हैं, जिनमें से प्रथम ४१ श्लोक अनुष्टुभ् में, ४७ श्लोक (४२-८८) उपपूर्वा में श्लोक संख्या ८९ वसन्ततिलका में, ९० शर्दूलविक्रीडित में और ९१ पुष्पिताग्रा में निबद्ध है।
प्रसरत्यथ मत्सरप्रबन्धे द्रुतमेकेन रणोल्बणं कृपाणम्।
अपरेण सुतं करेण वीरं, सहसा संयति यान्तमेष दधे ॥ ५४ ॥ जगति ज्वलिताखिलप्रदेशः, प्रचुरीभूतमलिम्लुचप्रचारः ।
स परस्परविग्रहो ग्रहणमिव तेषामभवन्नरेश्वराणाम् ॥ ६१ ॥
युद्धवर्णन नामक पाँचवे संर्ग में ६८ श्लोक हैं। इसमें एक से ६२ तक श्लोक अनुष्टुभ् में, ६३ से ६७ तक वसन्ततिलका में तथा अन्तिम ६८ वाँ श्लोक हरिणी छन्द में रचित है। सर्ग में प्रयुक्त नये छन्द हरिणी का लक्षण एवं कीर्तिकौमुदी का उक्त श्लोक निम्न है -
हरिणी२४- (रसयुगहयैन्स म्रौ स्लौ गो यदा हरिणी तदा । । ) अर्थात् जिसमें नगण, सगण, मगण, रगण, सगण, एक लघु तो उस छन्द का नाम हरिणी होता है। उदाहरण २५
और
प्रतिनृपतिभिर्भग्नोत्साहैर्निमग्नमिव क्वचित्,
स च नरपतिर्वीरस्तीरं जगाम मृधाम्बुधेः । दिशि दिशि यश स्तोमान् सोमान्वयी समचारय च्चतुरकुरलीचाणक्योऽयं प्रियङ्करणैर्गुणैः ॥ ६८ ॥
गुरु
पु. प्रमोद वर्णन शीर्षक छठें सर्ग में ५६ श्लोक हैं। इस सर्ग में काव्य के प्रधान छन्द अनुष्टुभ् में कोई भी श्लोक निबद्ध नहीं है । सम्भवत: 'साहित्यदर्पण के कर्त्ता' २६ आचार्य विश्वनाथ के इस मत के अनुरूप कि कोई सर्ग विविध वृत्तों से युक्त होना चाहिए अर्थात् प्रधान छन्द में निबद्ध होना चाहिए। इस सर्ग की विविध छन्दों में
रचना है।