Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
View full book text
________________
२४ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ सतोगुणी होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म लेने के कारण नीच और तिरस्करणीय माना जाय, यह व्यवस्था समाजघातक है। जैन विचारणा में इस विषमता के लिए कोई स्थान नहीं है। वस्तुत: सभी व्यक्ति जन्मत: समान हैं। उनमें धनी अथवा निर्धन, उच्च अथवा निम्न का कोई भेद नहीं है। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि साधनामार्ग का उपदेश सभी के लिए समान है। जो उपदेश एक धनवान या उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है, वही उपदेश गरीब या निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए है। इस प्रकार जैन धर्म-दर्शन ने जातिगत आधार पर ऊँच-नीच का भेद अस्वीकार कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया है। मानववाद और जैन ईश्वरवाद
ईश्वरवादियों की यह मान्यता है कि ईश्वर इस जगत का सष्टिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता है। जीवों को नाना योनियों में उत्पन्न करना, उनकी रक्षा करना और अपने-अपने कर्म के अनुसार फल देना ईश्वर का कार्य है। वही जीवों का भाग्यविधाता है। वह अपने भक्त की स्तुति या पूजा से प्रसन्न होकर उसके सारे अपराधों को क्षमा कर देता है।
जैन दर्शन में उपर्युक्त ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है। जैन दर्शन का ईश्वर न तो किसी की स्तुति से प्रसन्न होता है और न नाराज ही होता है, क्योंकि वह वीतरागी है। जैन दर्शन न तो ईश्वर के सृष्टि कर्तृत्व में विश्वास करता है, न ही उसके अनादि सिद्धत्व में और न ही उसके अनुसार ईश्वर एक है। जैन मान्यता के अनुसार प्राणी स्वयं अपने कर्मों द्वारा सुख-दुःख को प्राप्त करता है तथा बिना किसी दैवी कृपा के स्वयं अपने प्रयत्न से अपना विकास करके ईश्वर बन सकता है। ईश्वर-पद किसी व्यक्ति विशेष के लिए सुरक्षित नहीं है बल्कि सभी आत्माएँ समान हैं और सब अपना विकास करके सर्वज्ञता और ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य होता है। अत: गुण की दृष्टि से आत्मा अर्थात् साधारण जीव और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं होता। अन्तर है तो गुणों की प्रसुप्तावस्था का और उसके विकासावस्था का। जैन मान्यता के अनुसार ईश्वर के स्वरूप को निर्धारित करते हुए श्री ज्ञान मुनि जी ने लिखा है- 'यह सत्य है कि जैन दर्शन वैदिक दर्शन की तरह ईश्वर को जगत् का कर्ता, भाग्यविधाता, कर्मफलदाता तथा संसार का सर्वेसर्वा नहीं मानता है। जैन दर्शन का विश्वास है कि ईश्वर सत्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है, आनन्दस्वरूप है, वीतराग है, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है। उसका दृश्य या अदृश्य जगत् के विषय में प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई हस्तक्षेप नहीं है। वह जगत् का निर्माता नहीं है, भाग्यविधाता नहीं है, कर्म-फल का प्रदाता नहीं है तथा वह अवतार लेकर मनुष्य या किसी अन्य पशु आदि के रूप में संसार में आता भी नहीं है।"२६