Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 23
________________ २० श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ मानववाद और अपरिग्रहवाद मानववाद आर्थिक समानता में विश्वास करता है। मानववादी दृष्टिकोण में आर्थिक क्रियाएँ समस्त मानवीय चिन्तन और प्रगति की केन्द्र-बिन्दु है। वस्तुत: मानववाद के अनुसार आर्थिक विषमता ही सामाजिक विषमता का मूल कारण है। इस आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए ही जैन दर्शन ने अपरिग्रह का सिद्धान्त दिया है। परिग्रह, जिसे संग्रहवृत्ति भी कहा जाता है, एक प्रकार की सामाजिक हिंसा है। यह परिग्रहवृत्ति आसक्ति से उत्पन्न होती है। आसक्ति का दूसरा नाम लोभ है। लोभ समग्र सद्गुणों का विनाशक है।१४ तृष्णा के स्वरूप को बताते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है- यदि सोने और चाँदी के कैलास पर्वत के समान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिये जायें तो भी यह दुष्पर्य तृष्णा शान्त नहीं हो सकती, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो वह सीमित ही है और तृष्णा अनन्त और असीम है, अत: सीमित साधनों से इस असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती।१५ जैन आचार दर्शन के अनुसार व्यक्ति आसक्ति की भावना का त्याग करके अनासक्ति को जीवन में उतारने का प्रयत्न करे, क्योंकि जो संविभाग और संवितरण नहीं करता उसकी मुक्ति संभव नहीं है। ऐसा व्यक्ति पापी है।१६ अत: व्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए जितने की उसको आवश्यकता है। आवश्यकता से तात्पर्य है- जो जीवन को बनाये रखे और व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुंठित न करे। इस प्रकार जैन दर्शन न केवल आवश्यकता का परिसीमन करता है बल्कि यह भी बताता है कि हमें जीवन की अनिवार्यताओं और तृष्णा के अन्तर को जानना एवं समझना चाहिए। तृष्णा अनन्तता है तो अनिवार्यता सीमितता। संग्रह और शोषण की दुष्प्रवृत्तियों के फलस्वरूप आर्थिक एवं वर्ग-संघर्ष का जन्म होता है। इस वर्ग-संघर्ष को दूर करने का एकमात्र उपाय है- अपरिग्रह का सिद्धान्त। साधक हो या गृहस्थ, उसे अपरिग्रह के मार्ग पर चलने को जैन आचार दर्शन में आवश्यक माना गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मानववाद और जैन चिन्तन दोनों ही मानव मात्र की समानता में विश्वास करते हैं। दोनों के अनुसार संग्रह एवं वैयक्तिक परिग्रह सामाजिक जीवन के लिए अभिशाप है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को जीने का समान अधिकार है। मानववाद और अनैकान्तिक दृष्टि सामाजिक विषमता का एक प्रमुख कारण वैचारिक भिन्नता भी है। अनेकान्तवाद इस वैचारिक भिन्नता को दूर करता है। अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो अनेक में विश्वास करता है। अनेक से तात्पर्य है- अनेक धर्म (लक्षण), अनेक सीमाएँ, अनेक अपेक्षाएँ, अनेक दृष्टियाँ आदि। जो किसी एक धर्म, एक सीमा, एक अपेक्षा तथा एक दृष्टि को सत्य मानता है और अन्य दृष्टियों को गलत कहता है, वह एकान्तवादी कहलाता है तथा जो अनेक धर्मों या अपेक्षाओं को मान्यता प्रदान करता है, वह अनेकान्तवादी

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