Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन-दर्शन के विशेष प्रसंग में) : ५ द्वन्द्व को सर्वाधिक महत्त्व देता है क्योंकि द्वन्द्व की आन्तरवैयक्तिक स्थिति ही अन्तत: सभी अन्य स्तरों पर किसी न किसी रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। यदि व्यक्ति के अन्दर द्वन्द्व नहीं है तो स्पष्ट ही वह अपने बाह्य सम्बन्धों में द्वन्द्व की स्थिति नहीं बनने देता है। वस्तुत: द्वन्द्व के मोटे तौर से दो ही आयाम हैं-आन्तरिक और बाह्य। जिसने आन्तरिक द्वन्द्व - अपनी आत्मा में सम्पन्न होने वाले संघर्ष - पर विजय प्राप्त कर ली है, उसी को सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है अर्थात् वही सुख-दु:ख का कर्ता और विकर्ता है। अविजित कषायं और इन्द्रियाँ- इन्हीं को जीत कर निर्बाध विचरण करना सर्वश्रेष्ठ हैं। अत: महावीर कहते है कि बाहरी युद्धों (द्वन्द्वों) से क्या? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीत कर ही द्वन्द्व से मुक्त हुआ जा सकता है। किन्तु अपने पर यह विजय प्राप्त करना कठिन अवश्य है। आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व, जो व्यक्ति के आन्तरिक संघर्ष की ओर संकेत करता है, सभी अन्योन्य द्वन्द्वों के मूल में होता है। यदि मनुष्य आन्तरिक द्वन्द्व से उत्पन्न कषायों पर नियन्त्रण प्राप्त कर ले तो वस्तुत: सारे बाह्य द्वन्द्व स्वत: समाप्त हो जाते हैं। अध्यात्म से बाह्य तक एकरूपता है। जैनदर्शन का यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति अध्यात्म को जानता है बाह्य को भी जान लेता है। इसी प्रकार जो बाह्य को जानता है, अध्यात्म को जानता है। १० जैनदर्शन के इस सिद्धान्त को यदि हम द्वन्द्व-स्थिति पर घटित करें तो इससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगा कि बाह्य और आन्तरिक द्वन्द्व का मल स्वरूप एक सा है। मनोवैज्ञानिक विरोधी युग्म-भावनाएँ जो आन्तरिक द्वन्द्व को जन्म देती हैं, वे ही बाह्य युद्ध और द्वन्द्व में भी उपस्थित रहती हैं। वस्तुतः लाभ-अलाभ, मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा की विरोधी युगल-भावनाएँ ही अन्तत: बाह्य द्वन्द्वों पर भी उतना ही क्रियाशील हैं जितनी व्यक्ति की आध्यात्मिक टूटन के लिए वे उत्तरदायी हैं। अत: बाह्य द्वन्द्वों से बचने के लिए भी मनुष्य को मूल रूप से स्वयं अपने से ही संघर्ष करना है- अपने कषायों पर ही विजय प्राप्त करना है। द्वन्द्व निराकरण के लिए दार्शनिक मनोगठन अनेकान्तवाद और स्याद्वाद जैनदर्शन में द्वन्द्व एक वाञ्छनीय स्थिति नहीं है। आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र भी द्वन्द्व का प्रतिफल नकारात्मक भावनाओं और अवाञ्छनीय आचरण में देखते हैं। किन्तु एक सीमित अर्थ में द्वन्द्व को रचनात्मक भी माना गया है। वस्तुत: आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार द्वन्द्व न तो अपने आप में शुभ है, न अशुभ क्योंकि उसके परिणाम कुल मिलाकर शुभ और अशुभ दोनों ही हो सकते हैं। रचनात्मक दृष्टि से द्वन्द्र को एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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