Book Title: Sramana 1990 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 19
________________ ( १९ ) स्याद् अस्तिच (अउ वि है. अवक्तव्यच (अ अ)य उ) -अवक्तव्य है अथवा अ'- उ वि है. (अ)-उ अवक्तव्य है स्याद् नास्तिच (अ उ वि नहीं है. अवक्तव्य च २(अ! अ2)य - उ ( अवक्तव्य है यदि द्रव्य की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य है किन्तु यदि आत्मा की द्रव्य पर्याय दोनों या अनन्त अपेक्षाओं की दष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। यदि पर्याय की अपेक्षा से विचार करते हैं तो आत्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि अनन्त अपेक्षा की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। अथवा (अ'-उ वि नहीं है. (अ००)य- उ अवक्तव्य है स्याद् अस्तिच, (अ उ वि है. यदि द्रव्य दृष्टि से विचार नास्ति च अउ वि नहीं है. करते हैं तो आत्मा नित्य अवक्तव्यच ८(अ) उअवक्तव्य है है और यदि पर्याय दृष्टि से विचार करते हैं तो अथवा आत्मा नित्य नहीं है किन्तु यदि अपनी अनन्त अपे(अ'उ वि है. क्षाओं की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा अवअउ वि नहीं है. क्तव्य है। (अ' 'अ)- उ अवक्तव्य है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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