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बाह्य वस्तुओं और पदार्थों में अधिक होती है और बहिर्मुखी व्यक्ति भी बाह्य वस्तुओं और सामाजिक पर्यावरण में अधिक रुचि लेता है। सांसारिक सुख सुविधा की उपलब्धि और उसके भोगमें रुचि, बहिर्मुखी व्यक्तित्व और बहिरात्मा दोनों के सामान्य लक्षण हैं।
इसी प्रकार अन्तर्मुखी व्यक्ति भी किसी सीमा तक अन्तरात्मा के साथ तुलनीय हो सकता है, क्योंकि अन्तर्मुखता का प्रधान लक्षण है। सामाजिक सम्बन्धों से बचकर अपने चिन्तन में निमग्न एवं स्व. केन्द्रित रहना । अन्तरात्मा भी बाह्य विषयों में रुचि न लेकर अपने में निमग्न रहता है। चिन्तन और ध्यान तथा स्व के मूल्यांकन उसके मुख्य लक्षण हैं। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि मनोविज्ञान का अन्तर्मुखी व्यक्ति स्वकेन्द्रित होते हुए भी विषय वासनाओं से मुक्त नहीं होता तथा स्वार्थी होता है, जबकि अन्तरात्मा विषय वासनाओ पर नियंत्रण रखता है और स्वार्थी नहीं होता। उसका स्वार्थ केवल अपने आध्यात्मिक विकास में रुचि लेना ही है ।
जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया है - उभयमुखी व्यक्तित्व परमात्मा के साथ तुलनीय नहीं है । केवल एक ही अर्थ में और वह भी सीमित रूप में उनमें समरूपता देखी जा सकती है, वह यह कि जिस प्रकार उभयमुखी व्यक्तित्व अपने और दूसरों के हित में रुचि रखता है। उसी प्रकार परमात्मा भी अपने आध्यात्मिक विकास और लोक कल्याण दोनों से सम्पन्न होता है। लेकिन हमें यहाँ यह नहीं भूलना। चाहिए कि परमात्मा का अर्हत् रूप ही इस कार्य में संलग्न रहता है। सिद्ध या अशरीरी रूप हर प्रकार के सांसारिक बन्धनों से मुक्त है जाता है। यद्यपि अर्हत् भी सांसारिक बन्धनों से युक्त नहीं होते हैं तथापि शरीर एवं अघातीय कर्मों से युक्त होने के कारण ही ये इ. सांसारिक कार्यों में लगे रहते हैं। ____ जहाँ तक मानव व्यक्तित्व के तुलनात्मक विवेचन का प्रश्न है के मनोविज्ञान के व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक वर्गीकरण जैनों के व्यक्ति । त्व के आध्यात्मिक वर्गीकरण दोनों दो भिन्न आधारों पर स्थित हो हुए भी आंशिक रूप से समानता रखते हैं। ___इस तरह से हम देखते हैं कि जैन धर्म में मानव को एक बह। ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। समस्त धार्मिक एवं दार्शनिक विचार
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